अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 2
सूक्त - बुधः
देवता - विश्वे देवाः, ऋत्विक्स्तुतिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सूक्त १३७
कपृ॑न्नरः कपृ॒थमुद्द॑धातन चो॒दय॑त खु॒दत॒ वाज॑सातये। नि॑ष्टि॒ग्र्य: पु॒त्रमा च्या॑वयो॒तय॒ इन्द्रं॑ स॒बाध॑ इ॒ह सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठकृप॑त् । न॒र॒: । क॒पृथम् । उत् । द॒धा॒त॒न॒ । चो॒दय॑त । खु॒दत॑ । वाज॑ऽसातये ॥ नि॒ष्टि॒ग्र्य॑: । पु॒त्रम् । आ । च्य॒व॒य॒ । ऊ॒तये॑ । इन्द्र॑म् । स॒ऽबाध॑: । इ॒ह । सोम॑ऽपीतये ॥१३७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कपृन्नरः कपृथमुद्दधातन चोदयत खुदत वाजसातये। निष्टिग्र्य: पुत्रमा च्यावयोतय इन्द्रं सबाध इह सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठकृपत् । नर: । कपृथम् । उत् । दधातन । चोदयत । खुदत । वाजऽसातये ॥ निष्टिग्र्य: । पुत्रम् । आ । च्यवय । ऊतये । इन्द्रम् । सऽबाध: । इह । सोमऽपीतये ॥१३७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 2
विषय - 'बुध' का उत्तम जीवन
पदार्थ -
१. हे (नरः) = मनुष्यो! वे प्रभु (क-पृत्) = तुम्हारे जीवनों में सुख का पूरण करनेवाले हैं। उस (क-पृथम्) = आनन्द के पूरक प्रभु को ही (उद्दधातन) = उत्कर्षेण धारण करो। (चोदयत्) = उस प्रभु को ही अपने हृदयों में प्रेरित करो। (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिए (खुदत) = उस प्रभु में ही क्रीड़ा करो-आत्मक्रीड़ व आत्मरति बनो। २. "निष्टि' अर्थात् विनाश को 'गिरति' निगल जाने के कारण प्रभु "निष्टिनी' है। विनाश को निगीर्ण कर जानेवाले प्रभु को [निष्टिग्रयः पुत्रम] (ऊतये) = रक्षा के लिए (आच्यावय) = सब प्रकार से प्राप्त कर । (इह) = इस जीवन में (सोमपीतये) = शरीर में सोमशक्ति के रक्षण के लिए, हे (सबाधः) = वासनारूप शत्रुओं के बाधन के साथ विचरनेवाले लोगो! (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को [आच्यावय] प्राप्त करो। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही तो तुम इन शत्रुओं का बाधन कर सकोगे।
भावार्थ - हम प्रभु को हदयों में स्थापित करें। प्रभु में ही क्रीड़ा करनेवाले हो। प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर शत्रुओं का विदारण करें।
इस भाष्य को एडिट करें