अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 3
द॑धि॒क्राव्णो॑ अकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिनः॑। सु॑र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठद॒धि॒ऽक्राव्ण॑: । अ॒का॒रि॒ष॒म् । जि॒ष्णो: । अश्व॑स्य । वा॒जिन॑: ॥ सु॒र॒भि । न॒: । मुखा॑ । क॒र॒त् । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥१३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठदधिऽक्राव्ण: । अकारिषम् । जिष्णो: । अश्वस्य । वाजिन: ॥ सुरभि । न: । मुखा । करत् । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥१३७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 3
विषय - वामदेव का प्रभु-स्तवन
पदार्थ -
१. मैं उस प्रभु का (अकारिषम्) = स्तवन करूँ जोकि (दधिक्राण:) = [दधत् क्रामति] इस ब्रह्माण्ड का धारण करते हुए गतिवाले हैं। प्रभु की क्रिया ही इस ब्रह्माण्ड का धारण करती है। (जिष्णो:) = उस विजयशील प्रभु का हम स्तवन करें-प्रभु ही वस्तुत: हमारे काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं को पराजित करते हैं। (अश्वस्य) = [अश् व्याप्ती] हम उस सर्वव्यापक (वाजिन:) = शक्तिशाली प्रभु का स्तवन करें। २. यह प्रभु-स्तवन, अर्थात् 'प्रभु की तरह धारणात्मक कर्मों को करना, शत्रुओं को जीतना, व्यापकता व उदारता का धारण करना तथा शक्तिशाली बनना' (न:) = हमारे मुखा-मुखों को (सुरभि करत्) = सुगन्धित करे-हम कभी कोई कड़वा शब्द न बोलें और इसप्रकार यह प्रभु-स्तवन (न:) = हमारी (आयूंषि) = आयुवों को (प्रतारिषत्) = खूब बढ़ाए।
भावार्थ - प्रभु को 'दधिक्रावा-जिष्णु-अश्व व वाजी' इन नामों से स्मरण करते हुए हम भी धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों, शत्रुओं को जीतें, उदार और शक्तिशाली बनें। हमारे मुखों से सुन्दर, मधुर शब्द ही उच्चरित हों और हम दीर्घ जीवन को प्राप्त करें।
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