अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 5
इन्दु॒रिन्द्रा॑य पवत॒ इति॑ दे॒वासो॑ अब्रुवन्। वा॒चस्पति॑र्मखस्यते॒ विश्व॒स्येशा॑न॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दु॑: । इन्द्रा॑य । प॒व॒ते॒ । इति॑ । दे॒वास॑: । अ॒ब्रु॒व॒न् ॥ वा॒च: । पति॑: । म॒ख॒स्य॒ते॒ । विश्व॑स्य । ईशा॑न: । ओज॑सा ॥१३७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन्। वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दु: । इन्द्राय । पवते । इति । देवास: । अब्रुवन् ॥ वाच: । पति: । मखस्यते । विश्वस्य । ईशान: । ओजसा ॥१३७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 5
विषय - 'जितेन्द्रियता-ज्ञानरुचिता-यज्ञशीलता'-सोम-रक्षण
पदार्थ -
१. (इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम इन्द्राय जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (पवते) = प्राप्त होता है (इति) = यह बात (देवास:) = देववृत्ति के विद्वान् पुरुष (अब्रुवन्) = कहते हैं। सोम जितेन्द्रिय को ही प्राप्त होता है। २. (ओजसा) = ओजस्विता से (विश्वस्य) = सबका (ईशानः) = स्वामी यह सोम (वाचस्पति:) = सब ज्ञान की वाणियों का रक्षक है, अर्थात् सोम-रक्षण से बुद्धि की तीव्रता होकर जीवन में इन ज्ञानवाणियों का रक्षण होता है। यह सोम मखस्यते यज्ञ की कामना करता है, अर्थात् एक पुरुष यज्ञशील बनता है तो उसे सोम की अवश्य प्राप्ति होती है। यज्ञशीलता सोम-रक्षण में साधन बनती हैं तथा सोमरक्षक पुरुष अवश्य यज्ञशील बनता है।
भावार्थ - सोम-रक्षण जितेन्द्रिय ही कर पाता है। सुरक्षित सोम ज्ञान प्राप्त कराता है। इसके रक्षण के लिए यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे रहना आवश्यक है।
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