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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 137

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 11
    सूक्त - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १३७

    त्वं ह॒ त्यद॑प्रतिमा॒नमोजो॒ वज्रे॑ण वज्रिन्धृषि॒तो ज॑घन्थ। त्वं शुष्ण॒स्यावा॑तिरो॒ वध॑त्रै॒स्त्वं गा इ॑न्द्र॒ शच्येद॑विन्दः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । अ॒प्र॒ति॒ऽमा॒नम् । ओज॑: । वज्रे॑ण । व॒ज्रि॒न् । धृ॒षि॒त: । ज॒घ॒न्थ॒ ॥ त्वम् । शुष्ण॑स्य । अव॑ । अ॒ति॒र॒: । वध॑त्रै: । त्वम् । गा: । इ॒न्द्र॒ । शच्या॑ । इत् । अ॒वि॒न्द॒: ॥१३७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदप्रतिमानमोजो वज्रेण वज्रिन्धृषितो जघन्थ। त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं गा इन्द्र शच्येदविन्दः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । अप्रतिऽमानम् । ओज: । वज्रेण । वज्रिन् । धृषित: । जघन्थ ॥ त्वम् । शुष्णस्य । अव । अतिर: । वधत्रै: । त्वम् । गा: । इन्द्र । शच्या । इत् । अविन्द: ॥१३७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १.हे (वज्रिन) = क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए इन्द्र! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस (अप्रतिमानम्) = निरुपम-अतिप्रबल (ओज:) = शुष्णासुर के ओज को-वासना के बल को (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वन के द्वारा (धृषित:) = संग्राम में शत्रुहनन में कुशल होता हुआ (जघन्थ) = नष्ट करता है। २. इसके ओज को नष्ट करता हुआ (त्वम्) = तू (वधत्रैः) = हनन-साधन आयुधों से (शुष्णास्य) = इस शुष्णासुर का-अपने शिकार को सुखा देनेवाली कामवासना का (अवातिर:) वध कर डालता है। इसप्रकार हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (शच्या) = अपनी शक्ति व प्रज्ञान से (इत्) = निश्चयपूर्वक (गाः अविन्दः) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करता है। काम-विध्वंस से ही ज्ञान प्राप्त होता है। काम ही तो सदा ज्ञान को आवृत्त किये रहता है।

    भावार्थ - हम क्रियाशीलता द्वारा वासना को विनष्ट करें तभी हम ज्ञान प्राप्त कर पाएंगे।

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