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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 137

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 9
    सूक्त - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा देवता - इन्द्राबृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १३७

    अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं तित्विषा॒णः। विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्रः॑ ससाहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । द्र॒प्स: । अं॒शु॒ऽमत्या॑: । उ॒पऽस्थे॑ । अधा॑रयत् । त॒न्व॑म् । ति॒त्वि॒षा॒ण: ॥ विश॑: । अदे॑वी: । अ॒भि । आ॒ऽचर॑न्ती: । बृह॒स्पत‍ि॑ना ॥ यु॒जा । इन्द्र॑: । स॒स॒हे॒ ॥१३७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः। विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । द्रप्स: । अंशुऽमत्या: । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाण: ॥ विश: । अदेवी: । अभि । आऽचरन्ती: । बृहस्पत‍िना ॥ युजा । इन्द्र: । ससहे ॥१३७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. (अध) = अब (द्रप्स:) = परमात्मा का अंशभूत [छोटा रूप] यह जीव (अंशुमत्या:) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञान-नदी के (उपस्थे) = समीप (अधारयत्) = अपने को धारण करता है। इसप्रकार यह अपने (तन्वम्) = शरीर का (तित्विषाण:) = दीप्त करनेवाला होता है। शरीर में तेज, मस्तिष्क में ज्ञान इसप्रकार यह चमक उठता है। यह तित्विषाण इन्द्र:-जितेन्द्रिय पुरुष (अदेवी:) = आसुरी (अभ्याचरन्ती:) = आक्रमण करती हुई (विश:) = प्रजाओं के काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरभावों को (बृहस्पतिना युजा) = ज्ञान के स्वामी प्रभुको साथी के रूप में पाकर (ससाहे) = अभिभूत करनेवाला होता है।

    भावार्थ - स्वाध्याय व प्रभु की मित्रता हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाती है। प्रभु की मित्रता से हम सब शत्रुओं का पराभव कर पाते हैं।

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