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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 137

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 10
    सूक्त - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १३७

    त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभवः॒ शत्रु॑रिन्द्र। गू॒ढे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । स॒प्त॑ऽभ्य॑: ।जाय॑मान: । अ॒श॒त्रुऽभ्य॑: । अ॒भ॒व॒: । शत्रु॑: । इ॒न्द्र॒ ॥ गू॒ल्हे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒: । वि॒भु॒मत्ऽभ्य॑: । भुव॑नेभ्य: । रण॑म् । धा॒: ॥१३७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभवः शत्रुरिन्द्र। गूढे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्य: ।जायमान: । अशत्रुऽभ्य: । अभव: । शत्रु: । इन्द्र ॥ गूल्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्द: । विभुमत्ऽभ्य: । भुवनेभ्य: । रणम् । धा: ॥१३७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस कर्म को करता है कि (जायमानः) = विकास को प्राप्त करता हुआ तू (अ-शत्रुभ्यः) = जिनका शातन [Shattering-समाति] बड़ा ही कठिन है, उन (सप्तभ्यः) = काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' नामक सात शत्रुओं के लिए (शत्रु: अभवः) शत्रु होते हैं-आप इनका शातन कर पाते हैं। हमारे लिए तो ये अ-शत्र ही हैं-अशातनीय ही हैं। सामान्य मनुष्य इनका शातन नहीं कर सकता। २. इन शत्रुओं का शातन करके (गूढे द्यावापृथिवी) = शत्रुओं से आवृत्त हुए-हुए मस्तिष्क [द्यावा] व शरीर [पृथिवी] को तू फिर से (अन्वविन्दः) = प्राप्त करता है। काम, क्रोध व लोभ आदि ने इन्हें आवृत्त सा कर लिया था। काम आदि के विनाश से इन्हें हम फिर प्राप्त करनेवाले होते हैं। इनको काम आदि के आवरण से रहित करके (विभुमद्भ्यः) = महत्त्वयुक्त (भुवनेभ्यः) = लोकों के लिए-शरीर के सब अंगों के लिए (रणं धा:) = तू रमणीयता को धारण करता है [रमणं धारयसि]।

    भावार्थ - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' ये हमारे प्रबल शत्रु है। इनका शातन करके ही हम मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ कर पाते हैं और तभी सब अंगों के लिए रमणीयता को धारण करनेवाले होते हैं।

    सूचना - प्रस्तुत मन्त्र में काम आदि को 'अ-शत्रु' कहा है। यहाँ इसका अर्थ अशातनीय अर्थात् 'जिनका शातन कठिन है' यह है।

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