अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 4
सु॒तासो॒ मधु॑मत्तमाः॒ सोमा॒ इन्द्रा॑य म॒न्दिनः॑। प॒वित्र॑वन्तो अक्षरन्दे॒वान्ग॑छन्तु वो॒ मदाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तास॑: । मधु॑मत्ऽतमा: । सोमा॑: । इन्द्रा॑य । म॒न्दिन॑: ॥ प॒वित्र॑ऽवन्त: । अ॒क्ष॒र॒न् । दे॒वान् । ग॒च्छ॒न्तु॒ । व॒: । मदा॑: ॥१३७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतासो मधुमत्तमाः सोमा इन्द्राय मन्दिनः। पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गछन्तु वो मदाः ॥
स्वर रहित पद पाठसुतास: । मधुमत्ऽतमा: । सोमा: । इन्द्राय । मन्दिन: ॥ पवित्रऽवन्त: । अक्षरन् । देवान् । गच्छन्तु । व: । मदा: ॥१३७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 4
विषय - 'मधुमत्तम:-मन्दिनः ' सोमाः
पदार्थ -
१. (सतास:) = उत्पन्न हुए-हुए (सोमा:) = सोमकण (मधुमत्तमाः) = अत्यन्त माधुर्य को लिये हुए हैं। शरीर में सुरक्षित होने पर ये जीवन को बड़ा मधुर बनाते हैं। (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए ये (मन्दिन:) = हर्ष देनेवाले हैं। २. (पवित्रवन्तः) = पवित्रता करनेवाले ये सोम (अक्षरन्) = शरीर के अंग प्रत्यंग में संचरित होते हैं। शरीर को ये नौरोग बनाते हैं, मन को निर्मल। हे सोमकणो! (व: मदा:) = तुम्हारे उल्लास (देवान् गच्छन्तु) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों को प्राप्त हों। देववृत्तिवाले पुरुष ही इन सोमकणों का रक्षण कर पाते हैं और वे ही सोमजनित उल्लास का अनुभव करते हैं। वस्तुत: सोम-रक्षण ही उन्हें 'देव' बनाता है।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोमकण 'माधुर्य, हर्ष, पवित्रता व उल्लास' को प्राप्त कराते है।
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