अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 8
सूक्त - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १३७
द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो अंशु॒मत्याः॑। नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्य॑: । अं॒शु॒ऽमत्या॑: ॥ नभ॑: । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । व॒: । वृ॒ष॒ण॒: । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१३७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः। नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥
स्वर रहित पद पाठद्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्य: । अंशुऽमत्या: ॥ नभ: । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । व: । वृषण: । युध्यत । आजौ ॥१३७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 8
विषय - नभः न [सूर्य की भाँति]
पदार्थ -
१. (द्रप्सम्) = प्रभु के उस छोटे रूप [अंश] जीव को (विषुणे) = [विष्वग् अञ्चने, विस्तृते देशे] चारों ओर गति-[व्याप्ति]-वाले प्रभु में (अपश्यम्) = मैं देखता हूँ। प्रभु की गोद में स्थित जीव को अनुभव करता हूँ। यह (अंशुमत्याः नद्यः) = प्रकाश की किरणोंवाली ज्ञाननदी [सरस्वती] के (उपहरे) = अत्यन्त गूढ स्थान में (चरन्तम्) = गति कर रहा है। २. (नभः न) = आदित्य के समान (अवतस्थिवांसम्) = स्थित (कृष्णम्) = वासनाओं के क्षीण [कृश] करनेवाले को (इष्यामि) = चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं वासनामय वृत्र को विनष्ट करके सूर्य की भाँति चमकूँ। हे (वृष्ण:) = शक्तिशाली मरुतो [प्राणो]! (व:) = तुम (आजौ) = संग्राम में (युध्यत) = वासनारूप शत्रुओं के साथ युद्ध करो। इन्हें पराजित करके ही तो मैं चमक सकूँगा।
भावार्थ - जीव अपने को व्यापक प्रभु में स्थित देखे। सदा ज्ञान में विचरने का प्रयत्न करे। प्राणसाधना द्वारा वासनाओं का विनाश करके सूर्य की भाँति चमके।
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