अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 12
स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑ वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । वष॒न् । अ॒मुम् । च॒रुम् । सत्रा॑ऽदावन् । अप॑ । वृ॒धि॒ ॥ अ॒स्मभ्य॑म् । अप्र॑तिऽस्कुत: ॥७०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । वषन् । अमुम् । चरुम् । सत्राऽदावन् । अप । वृधि ॥ अस्मभ्यम् । अप्रतिऽस्कुत: ॥७०.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 12
विषय - 'चरु-अपावरण'
पदार्थ -
१. हे (वृषन्) = संग्रामों में विजय प्राप्त कराके सुखों का वर्षण करनेवाले (सत्रादावन्) = सदा धनों व ज्ञानों को देनेवाले प्रभो! (स:) = वे आप (नः) = हमारे लिए (अमुं चरुम्) = अपने उस ज्ञान के कोश को अपावृधि-खोलिए। 'ब्रह्मचर्य' शब्द में ज्ञान के चरण का संकेत हैं, 'आचार्य' इस ज्ञान के चरण को करानेवाले हैं, ब्रह्मचारी इस चरण को करनेवाला है। इस चरु का प्रकट करना हो इसका अपावरण है। 'यस्मात् कोशादुभराम वेदम्' इन शब्दों में ज्ञान एक कोश है, उस कोश को प्रभु-कृपा से ही हम खोल पाएंगे। २. हे प्रभो! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए आप (अप्रतिष्कुत:) = प्रतिशब्द से रहित हो-आप हमारे लिए 'न' इस शब्द का उच्चारण कीजिए ही नहीं। हमारी प्रार्थना सदा आपसे सुनी जाए।
भावार्थ - प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा सुनें। हमारे लिए वे ज्ञान के कोश को खोल दें। हमपर सदा सुखों का वर्षण करें, हमारे लिए इष्ट धनों को देनेवाले हों।
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