अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 5
अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑: । प॒रि॒ऽज्म॒न् । आ । ग॒हि॒ । दि॒व: । वा॒ । रो॒च॒नात् । अधि॑ ॥ सम् । अ॒स्मि॒न् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । गिर॑: ॥७०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअत: । परिऽज्मन् । आ । गहि । दिव: । वा । रोचनात् । अधि ॥ सम् । अस्मिन् । ऋञ्जते । गिर: ॥७०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 5
विषय - सर्वत्र प्रभु की महिमा का दर्शन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का आराधक प्रभु से आराधना करते हुए कहता है कि (परिज्मन्) = हे चारों ओर गये हुए सर्वव्यापिन् प्रभो! (आगहि) = आप हमें प्राप्त होइए। अत: इस पृथिवीलोक से (दिवःवा) = या द्युलोक से (रोचनात् अधि) = इस चन्द्र व विद्युत् की दीसिवाले अन्तरिक्ष से [आगहि] आप हमें प्राप्त होइए, अर्थात् पृथिवीस्थ अग्नि आदि देवों का चिन्तन करता हुआ मैं उन देवों में स्थापित किये गये देवत्व का दर्शन करूँ। इसी प्रकार अन्तरिक्ष के देवों में मैं आपकी महिमा का दर्शन करूँ तथा घुलोक के देवों में मुझे आपका प्रकाश मिले। २. इस प्रकार सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखनेवाले (गिरः) = स्तोता लोग (अस्मिन्) = इस परमात्मा में (समृञ्जते) = अपने जीवन को सुभूषित करते हैं। प्रभु के अनुरूप बनने का प्रयत्न करते हुए ये स्तोता लोग सुन्दर जीवनवाले बन जाते हैं।
भावार्थ - हम सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखें। प्रभु में स्थित हुए-हुए, प्रभु के अनुरूप बनने का प्रयत्न करते हुए अपने जीवन को सुन्दर बना पाएँ।
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