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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 70

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 6
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०

    इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑। इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒त: । वा॒ । सा॒तिम् । ईम॑हे । दि॒व: । वा॒ । पार्थि॑वात् । अधि॑ ॥ म॒ह: । वा॒ । रज॑स: ॥७०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि। इन्द्रं महो वा रजसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इत: । वा । सातिम् । ईमहे । दिव: । वा । पार्थिवात् । अधि ॥ मह: । वा । रजस: ॥७०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से हम (इत: पार्थिवात् अधि) = इस पार्थिवलोक से (सातिम्) = धनदान को (ईमहे) = माँगते हैं। पार्थिवलोक यह शरीर है। इसका धन यही है कि यह वन-तुल्य दृढ़ हो, अतः हम प्रथम आराधना यही करते हैं कि हमारा शरीर पत्थर के समान दृढ़ हो। २. हम उस प्रभु से (दिवः वा) = इस युलोक का धन माँगते हैं। द्युलोक का धन दीप्ति है-हम ज्ञानदीप्ति की याचना करते हैं। ३. (महः रजस: वा) = हम इस महान् अन्तरिक्षलोक से [सातिम् ईमहे] धन-दान माँगते हैं। अन्तरिक्षलोक में जैसे चन्द्रमा शीतल किरणों से ज्योत्स्ना फैला रहा है उसी प्रकार हमारा हृदय प्रेम की स्निग्ध भावना से शीतलता को प्रवाहित करनेवाला हो।

    भावार्थ - प्रभुभक्त का आदर्श है 'दृढ़ शरीर, उज्ज्वल मस्तिष्क, स्निग्ध हृदय'।

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