अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒न: । अबि॑भ्युषा ॥ म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥७०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मान: । अबिभ्युषा ॥ मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥७०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
विषय - मन्दू समानवर्चसा
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु-स्तवन करता हुआ तू (अबिभ्युषा) = सब प्रकार के भयों से रहित उस (इन्द्रेण) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से (संजग्मानः) = संगत होता हुआ (हि) = निश्चय से (संदृक्षसे) = दिखता है। यह प्रभु-संगम तुझे भी भीतिरहित व परमैश्वर्यवाला बनाता है। २. प्रभु-संगम के होने पर ये (उपास्य) = उपासक दोनों (मन्दू) = आनन्दमय व (समानवर्चसा) = समान तेजवाले हो जाते हैं। प्रभु की गोद में पूर्ण निर्भीक यह उपासक भी आनन्दमय हो जाता है और प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न हो जाता है। जैसे अग्नि में पड़कर लोहशलाका भी अग्निमय हो जाती है, इसी प्रकार यह उपासक भी प्रभु की भाँति हो जाता है। उपनिषदों के शब्दों में 'ब्रह्म इब'।
भावार्थ - प्रभु की उपासना से प्रभु से संगत होकर हम भी प्रभु के समान 'आनन्द व शक्ति' का अनुभव करते हैं।
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