अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
दे॑व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व॒ऽयन्त॑: । यथा॑ । म॒तिम् । अच्छ॑ । वि॒दत्ऽव॑सुम् । गिर॑: । म॒हाम् । अ॒नू॒ष॒त॒ । श्रु॒तम् ॥७०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः। महामनूषत श्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽयन्त: । यथा । मतिम् । अच्छ । विदत्ऽवसुम् । गिर: । महाम् । अनूषत । श्रुतम् ॥७०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 2
विषय - 'देवयन्त:-गिरः'
पदार्थ -
१. (देवयन्त:) = [देवमात्मनमिच्छन्तः] उस प्रभु को प्राप्त करने की कामनावाले (गिरः) = स्तोता लोग (महाम) = पूजनीय (श्रुतम्) = सर्वज्ञत्व आदि गुणों से प्रसिद्ध प्रभुको (अनूषत) = स्तुत करते हैं। २. उस प्रभु को (अच्छ) = लक्ष्य करके स्तवन करते हैं जो (यथामतिम्) = यथार्थ ज्ञानवाले हैं और (विदद्सुम्) = सब वसुओं को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ - प्रभु की उपासना से जहाँ यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है, वहाँ निवास के लिए आवश्यक सब धन भी प्राप्त हो जाते हैं।
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