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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 70

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 11
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०

    इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे। युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । व॒यम् । म॒हा॒ऽध॒ने । इन्द्र॑म् । अर्भे॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ युज॑म् । वृ॒त्रेषु॑ । व॒ज्रि॒ण॑म् ॥७०.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे। युजं वृत्रेषु वज्रिणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । वयम् । महाऽधने । इन्द्रम् । अर्भे । हवामहे ॥ युजम् । वृत्रेषु । वज्रिणम् ॥७०.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को हम (महाधने) = 'दमन-दया व दान' रूप महाधनों की प्राप्ति के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु-कृपा से काम को पराजित करके मैं मन को दान्त करता हूँ। प्रभु-कृपा से ही क्रोध को पराभूत करके मैं दयावाला बनता है और लोभ को विनष्ट कर में दानशील होता हूँ। २. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही हम (अर्भे) = छोटे धनों के निमित्त-सांसारिक धनों की प्राप्ति के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। ३. उस प्रभु को हम पुकारते हैं जोकि (युजम्) = सदा हमारा साथ देनेवाले हैं और (वृत्रेषु) = हमारे ज्ञान पर पर्दा डालनेवाली वासनाओं पर (वज्रिणम्) = वज्र का प्रहार करनेवाले हैं।

    भावार्थ - प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर हम छोटे-बड़े सभी संग्रामों में विजयी बनें। प्रभु हमारा साथ न छोड़नेवाले सच्चे मित्र हैं। उनके अनुग्रह से ही हम वासनाओं पर विजय पाकर ज्ञानदीस बन पाते हैं।

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