अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
अ॑नव॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒व॒द्यै: । अ॒भिद्यु॑ऽभिर: । म॒ख: । सह॑स्वत् । अ॒र्च॒ति॒ ॥ ग॒णै: । इन्द्र॑स्य । काम्यै॑: ॥७०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठअनवद्यै: । अभिद्युऽभिर: । मख: । सहस्वत् । अर्चति ॥ गणै: । इन्द्रस्य । काम्यै: ॥७०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
विषय - "निर्दोष-ज्ञानमय-प्रशंसनीय' जीवन
पदार्थ -
१. प्रभु की उपासना करनेवाला यह उपासक (मखः) = [मख गतौ]-गतिशील-कर्मनिष्ठ होता है। यह मरुतों [प्राणों] के साथ उस प्रभु की (सहस्वत्) = [बलोपेतं यथा स्यात्तथा]-सबल (अर्चति) = अर्चना करता है। प्रभु की अर्चना की वस्तुतः पहचान ही यह है कि उपासक में 'सहस्' की उत्पत्ति हुई या नहीं। २. जिन प्राणों की साधना करता हुआ इन्द्र प्रभु की अर्चना करता है, वे प्राण (अनवद्यैः) = अवद्य-निन्दनीय पाप से रहित हैं। प्राणसाधना वासना-विनाश द्वारा साधक को निष्पाप बनाती है। (अभिद्युभिः) = ये प्राण प्रकाश की ओर ले-जानेवाले हैं। वासनारूप वृत्र [आवरण] का विनाश करके ये ज्ञान को अनावृत्त कर देते हैं। (गणै:) = ये प्राण संख्यान के योग्य है-प्रशंसनीय हैं। [गण to praise] (इन्द्रस्य काम्यैः) = जीवात्मा के चाहने योग्य हैं। वस्तुत: इन प्राणों के द्वारा ही 'हम निर्दोष-ज्ञानमय-प्रशंसनीय' जीवनवाले बनते हैं।
भावार्थ - यज्ञमय जीवनवाले बनकर प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का अर्चन करें। यह अर्चन हमें 'सहस्वान्' बनाएगा। प्राणसाधना से हम 'निर्दोष-ज्ञानयुक्त-प्रशंसनीय' जीवनवाले बनेंगे।
इस भाष्य को एडिट करें