अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 70/ मन्त्र 13
तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिणः॑। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठतञ्जेऽतु॑ञ्जे । ये । उत्ऽत॑रे । स्तोमा॑: । इन्द्र॑स्य । व॒ज्रिण॑: ॥ न । वि॒न्धे॒ । अ॒स्य॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् ॥७०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः। न विन्धे अस्य सुष्टुतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठतञ्जेऽतुञ्जे । ये । उत्ऽतरे । स्तोमा: । इन्द्रस्य । वज्रिण: ॥ न । विन्धे । अस्य । सुऽस्तुतिम् ॥७०.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 13
विषय - अनन्त दान-सान्त स्तवन
पदार्थ -
१. (तुञ्जे तुञ्जे) = प्रत्येक दान के कर्म में (ये) = जो उस (वज्रिण:) = काम, क्रोध, लोभ आदि पर वन का प्रहार करनेवाले (इन्द्रस्य) = शत्रुओं के विद्रावक परमैश्वर्यशाली प्रभु के (उत्तरे स्तोमा:) = उत्कृष्ट स्तवन होते हैं, उन स्तवनों द्वारा (अस्य) = इस प्रभु की (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को न विन्धे [न विन्दामि] नहीं प्रास करता हूँ। २. प्रभु के दान अनन्त है, मेरी स्तुति तो सान्त ही है। मैं कितना भी प्रभु का स्तवन करूँ, प्रभु के दान उस स्तवन से अधिक ही होते हैं। प्रभु के दान समाप्त नहीं होते, मेरी स्तुति समाप्त हो जाती है।
भावार्थ - प्रभु के अनन्त दानों का स्तवन करना हमारे सामर्थ्य से बाहर है। दान अनन्त हैं, हमारी शक्ति तो सान्त ही है।
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