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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के।तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। ए॒ज॒ति॒। तत्। न। ए॒ज॒ति॒। तत्। दू॒रे। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒न्ति॒के ॥ तत्। अ॒न्तः। अ॒स्य॒। सर्व॑स्य। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सर्व॑स्य। अ॒स्य॒। बा॒ह्य॒तः ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सरवस्यास्य बाह्यतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। एजति। तत्। न। एजति। तत्। दूरे। तत्। ऊँऽइत्यँू। अन्तिके॥ तत्। अन्तः। अस्य। सर्वस्य। तत्। ऊँऽइत्यँू। सर्वस्य। अस्य। बाह्यतः॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -

    पदार्थ = ( तद् एजति ) = वह ब्रह्म मूर्खों की दृष्टि से चलायमान होता है।  ( तत् ) = वह ब्रह्म  ( न एजति ) = अपने स्वरूप से कभी चलायमान नहीं होता अथवा  ( तत् एजति ) = वह ब्रह्म   'एजयति'  समग्र ब्रह्माण्ड को चला रहा है, आप चलायमान नहीं होता ।  ( तत् दूरे ) = वह अज्ञानी मूर्ख दुराचारी पुरुषों से दूर है,  ( तत् उ अन्तिके ) = वह ही ब्रह्म विद्वान् सदाचारी महापुरुषों के समीप है, ( तत् ) = वह  ( अस्य सर्वस्य ) = इस समस्त ब्रह्माण्ड और सब जीवों के  ( अन्तः ) = भीतर  ( तत् उ ) = वह ही ब्रह्म  ( अस्य सर्वस्य ) = इस जगत् के और सब जीवों के  ( बाह्यत: ) = बाहिर भी वर्त्तमान है, क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक  है  ।

    भावार्थ -

     भावार्थ = वह परमात्मा अज्ञानी मूर्खों की दृष्टि से चलता है,वास्तव में वह सब जगत् को चला रहा है, आप कूटस्थ निर्विकार अटल होने से कभी स्व स्वरूप से चलायमान नहीं होता । जो अज्ञानी पुरुष, परमेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध हैं, वे इधर-उधर भटकते हुए भी उसको नहीं जानते । जो विवेकी पुरुष ईश्वर की वैदिक आज्ञा के अनुसार अपने जीवन को बनाते, सदा वेदों का और वेदानुकूल उपनिषदादिकों का विचार करते, उत्तम महात्माओं का सत्संग और उनकी प्रेमपूर्वक सेवा करते हैं, वे अपने आत्मा में अति समीप ब्रह्म को प्राप्त होकर, सदा आनन्द में रहते हैं। परमात्मदेव को सब जगत् के अन्दर बाहिर व्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी जानकर कभी कोई पाप न करते हुए, उस प्रभु के ध्यान से अपने जन्म को सफल करना चाहिए । 

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