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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यस्तु सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति।स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न वि चि॑कित्सति॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। तु। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मन्। ए॒व। अ॒नु॒पश्य॒तीत्य॑नु॒ऽपश्य॑ति ॥ स॒र्व॒भू॒तेष्विति॑ सर्वऽभू॒तेषु॑। च॒। आ॒त्मान॑म्। ततः॑। न। वि। चि॒कि॒त्स॒ति॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानन्ततो न वि चिकित्सति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। तु। सर्वाणि। भूतानि। आत्मन्। एव। अनुपश्यतीत्यनुऽपश्यति॥ सर्वभूतेष्विति सर्वऽभूतेषु। च। आत्मानम्। ततः। न। वि। चिकित्सति॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -

     पदार्थ = ( यस्तु ) = जो भी विद्वान्  ( सर्वाणि भूतानि ) = सब चर अचर पदार्थों को  ( आत्मन् एव ) = परमात्मा के ही आश्रित  ( अनु पश्यति ) = वेदों के स्वाध्याय, महात्माओं के सत्संग धर्माचरण और योगाभ्यास आदि साधनों से साक्षात् कर लेता है और  ( सर्वभूतेषु च ) = सब प्रकृति आदि पदार्थों में  ( आत्मानम् ) = परमात्मा को व्यापक जानता है  ( ततः ) = तब वह  ( न विचिकित्सति ) = संशय को नहीं प्राप्त होता । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = जो विद्वान् पुरुष, सब प्राणी अप्राणी जगत् को परमात्मा के आश्रित देखता है और सब प्रकृति आदि पदार्थों में परमात्मा को जानता है। ऐसे विद्वान् महापुरुषों के हृदय में कोई संशय नहीं रहता।

    इस मन्त्र का दूसरा अर्थ ऐसा होता है कि जो, विद्वान् पुरुष सब प्राणियों को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को सब प्राणियों में देखता है वह किसी से घृणा वा किसी की निन्दा नहीं करता, अर्थात् वह सबका हितेच्छु शुभचिन्तक बन जाता है ।

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