यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 16
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदगायत्री
स्वरः - षड्जः
1
स ह॑व्य॒वाडम॑र्त्यऽउ॒शिग्दू॒तश्चनो॑हितः।अ॒ग्निर्धि॒या समृ॑ण्वति॥१६॥
स्वर सहित पद पाठसः। ह॒व्य॒वाडिति॑ हव्य॒ऽवाट्। अम॑र्त्यः। उ॒शिक्। दू॒तः। चनो॑हित॒ इति चनः॑ऽहितः। अ॒ग्निः। धि॒या। सम्। ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हव्यवाडमर्त्यऽउशिग्दूतश्चनोहितः । अग्निर्धिया समृण्वति ॥
स्वर रहित पद पाठ
सः। हव्यवाडिति हव्यऽवाट्। अमर्त्यः। उशिक्। दूतः। चनोहित इति चनःऽहितः। अग्निः। धिया। सम्। ऋण्वति॥१६॥
विषय - अग्नि अर्थात् विद्वान् दूत का वर्णन, अध्यात्म में ज्ञानी उपासक का वर्णन ।
भावार्थ -
(सः) वह ( हव्यवाड् ) स्वीकार करने योग्य आज्ञाओं को दूसरों तक पहुँचाने वाले, (अमर्त्यः) न मारने योग्य ( उशिग्) स्वयं कान्तिमान्, अन्यों को प्रिय, विद्वान् (दूत) दूत (चनोहितः) वचनों को धारण करने में समर्थ है वह (अग्नि) तेजस्वी, ज्ञानवान् पुरुष (धिया ) अपनी बुद्धि से (सम् ऋण्वति) समस्त कर्म संपादन करता है ।
अग्नि के पक्ष में- हव्य चरु को वायु आदि तक पहुँचाने वाला कारण, नित्य, ( उशिक ) कान्तिमान्, (दूत) तापवान्, (चनोहितः) अन्न परिपाक करने में उपयोगी, (अग्निः) अग्नि (धिया) धारण सामर्थ्य या दाहक्रिया से ही ( सम्-ऋण्वति) अन्य दिव्य पदार्थों से संगत होता है ।
अध्यात्म में- वह ज्ञानी, कान्तिमान्, (दूतः) उपासक (चनो हितः) सञ्चित ज्ञान या उत्तम वचन को धारण करने वाला (अग्निः) ज्ञानी आत्मा (धिया) धारण के बल से परमेश्वर को (समृण्वति) प्राप्त करता है।
'चन: ' -- वचन शब्दस्य वकारलोपेनान्ते सकारोपजनेन 'चनः' । यद्वा वचेरसुनि बाहुलकात् नोन्तादेशः इति दे० य० ॥ चनः इत्यन्न नाम | तथैव पचनस्य पकारलोपे सकारोपजनेन च । पचेर्वासुनि नोन्तादेशः । चीयतेर्वा ।
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