यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 17
अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ब्रुवे।दे॒वाँ२ऽआ सा॑दयादि॒ह॥१७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्। दू॒तम्। पु॒रः। द॒धे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म्। उप॑। ब्रु॒वे॒। दे॒वान्। आ। सा॒द॒या॒त्। इ॒ह ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निन्दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवाँऽआसादयादिह ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम्। दूतम्। पुरः। दधे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्। उप। ब्रुवे। देवान्। आ। सादयात्। इह॥१७॥
भावार्थ -
मैं राजा ( हव्यवाहम् ) ग्रहण करने योग्य संदेह को लाने वाले ( दूतम् ) दूत बनकर आये, ( अग्निम् ) ज्ञानी पुरुष को (पुर:) सबके समक्ष, आगे (दधे) स्थापित करता हूँ और (उपध्रुवे) उससे प्रार्थना करता हूँ कि वह (इह) इस पद पर रहकर (देवान् आसादयात् ) अन्य राजाओं तक पहुँचे । अग्नि के पक्ष में- हव्य, चरु को वहन करने वाले ( दूतम् ) तापयुक्त अग्नि को मैं आगे स्थापित करता हूँ | वह ( देवान् आसादयात्) वायु आदि पदार्थों तक पहुँचावे ।
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