अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 4
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - आर्ष्युष्णिक्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
वीमे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑। सु॑स॒त्यमिद्गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि । इ॑मे । दे॒वा: । अ॑क्रंस॒त । अध्व॒र्यो । क्षि॒प्रम् । प्र॒चर॑ ॥ सु॒स॒त्यम् । इत् । गवा॑म् । अ॒सि । असि॑ । प्रखु॒दसि॑ ॥१३५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वीमे देवा अक्रंसताध्वर्यो क्षिप्रं प्रचर। सुसत्यमिद्गवामस्यसि प्रखुदसि ॥
स्वर रहित पद पाठवि । इमे । देवा: । अक्रंसत । अध्वर्यो । क्षिप्रम् । प्रचर ॥ सुसत्यम् । इत् । गवाम् । असि । असि । प्रखुदसि ॥१३५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 4
विषय - जीव, ब्रह्म, प्रकृति।
भावार्थ -
(इमे) ये सब (देवाः) विद्वान् पुरुष (वि अ क्रंसत) विविध मार्गों में चले जा रहे हैं। हे (अध्वर्यो) यज्ञ सम्पादन में कुशल पुरुष ! तू (क्षिप्रं) बहुत शीघ्र (प्रचर) आगे आगे चल। तेरे पीछे सब चलें।
अध्यात्म में—(इमे देवाः) ये सब विषयों में क्रीड़ा करने वाले प्राण चक्षु आदि इन्द्रियगण (वि अकंसत) विविध विषयों में दौड़ते हैं। हे (अध्वर्यो) अहिंसक अथवा अविनाशिन् आत्मन् ! तू (क्षिप्रं प्रचर) अति शीघ्र इन सबका प्रमुख होकर चल या उत्तम भोगों का भोग कर तू (गवाम्) समस्त इन्द्रियों का, गौवों के बाड़े के समान, (सुषदम् इम्) सुख से आश्रय लेने का स्थान (असि) है। और तू (प्रखुद् असि) सबसे उत्तम स्मृतिशील आनन्द लेनेहारा है। अथवा (प्रखुदसि) सबसे बढ़कर आनन्द लेने वाला है। तू आनन्द का अनुभव कर।
टिप्पणी -
‘सुसत्यमिद् गवामास्यसि प्रखुदसि’ इति शं० पा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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