अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 13
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑। इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒म्ऽग॒र: । वा॑वदीति । त्रे॒धा । ब॒द्ध: । व॑र॒त्रया॑ ॥ इ॑राम् । अह॒ । प्रशं॑स॒ति । अनि॑रा॒म् । अप॑ । से॒ध॒ति॒ ॥१३५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरंगरो वावदीति त्रेधा बद्धो वरत्रया। इरामह प्रशंसत्यनिरामप सेधति ॥
स्वर रहित पद पाठअरम्ऽगर: । वावदीति । त्रेधा । बद्ध: । वरत्रया ॥ इराम् । अह । प्रशंसति । अनिराम् । अप । सेधति ॥१३५.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 13
विषय - जीव, ब्रह्म, प्रकृति।
भावार्थ -
(अरंगरः) अति उत्तम उपदेष्टा पुरुष भी (वरत्रया) उत्तम दक्षिणा रूप, वरण योग्य धनकी पालना से (वरत्रया वद्धः) मानो रस्सी से कर, अधीन होकर (वावादीति) निरन्तर उपदेश ही करता हैं। वह (इराम्) अन्न आदि देने वाले की (प्रशंसति) प्रशंसा करता है और (अनिराम्) न देने वाले को (अप सेर्धात) छोड़कर चला जाता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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