अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्। उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठको॒श॒बिले॑ । रजनि॒ । ग्रन्थे॑: । धा॒नम् । उ॒पानहि॑ । पा॒दम् ॥ उत्त॑मा॒म् । जनि॑माम् । ज॒न्या । अनुत्त॑मा॒म् । जनी॒न् । वर्त्म॑न् । यात् ॥१३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कोशबिले रजनि ग्रन्थेर्धानमुपानहि पादम्। उत्तमां जनिमां जन्यानुत्तमां जनीन्वर्त्मन्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठकोशबिले । रजनि । ग्रन्थे: । धानम् । उपानहि । पादम् ॥ उत्तमाम् । जनिमाम् । जन्या । अनुत्तमाम् । जनीन् । वर्त्मन् । यात् ॥१३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
भावार्थ -
(मातुस्ते किरणौ द्वौ०) इसका उत्तर यह है। दो साधन एक मैं किस प्रकार रहते हैं ? उत्तर—ऐसे जैसे (कोशबिले) एक मियान में दो बिल हों। भा०- (निगृह्यकर्ण कौ० इत्यादि) इसका उत्तर यह है। दो कर्ताओं को किस प्रकार ब्रह्मशक्ति नियम में रखती है ? ऐसे जैसे (रज्जुनि) रस्सी में (ग्रन्थेः दानम्) गांठ देदी जाती है। दोनों छोर पकड़ कर गांठ लगा दी जाती हैं। भा०- प्रकृति अचेतन सोती स्त्री के समान है और पुरुष चेतन खड़े पुरुष के समान है। उनका परस्पर संयोग कैसे ? (उत्तानायां० इत्यादि) का उत्तर है। (उपानहि) जूते में (पादम्) चरण को जिस प्रकार पुरुष डाल देता है और उसे पहन लेता है उसी प्रकार खड़ा पुरुष पड़ी प्रकृति को व्याप लेता है। चेतन ब्रह्म अपने एक पाद से प्रकृति में व्याप्त होकर जगत् को धार रहा है। “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि”॥ भा०- (श्लचणायां० इत्यादि) का उत्तर। स्वयं स्नेहयुक्त को वह कैसे व्यापता है ? जैसे (उत्तराञ्जनीं) ऊपर की आंजने की सलाई को जैसे (आजन्याम्) अंजनदानी में रक्खा जाता है। भा०- (अवश्लक्ष्णम् इव० इत्यादि) का उत्तर। लोम वाले स्थान में स्निग्ध पदार्थ किस प्रकार भीतर जाता है। ऐसे जैसे (उत्तराज्जनीं) अंजने की सलाई को (वर्त्मन्याम्) आंख की लोमवाली पलक की कोरों में।
टिप्पणी -
हमने अपने भाष्य में भी इन दृष्टान्तों को संक्षेप से दर्शाया है, देखो प्रवल्हिका सूक्त २०। १३३॥ ।
‘उत्तमां जनियाजन्यामुत्तमां जनीतू वर्त्तन्याव’ इति शं० पा०।
‘रजनि ग्रन्थेर्धानम्’ इति शं० पा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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