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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 8
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - भुरिग्गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः। उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । श्वेत॒: । आशु॑पत्वा: । उ॒तो । पद्या॑भि॒: । वसि॑ष्ठ: ॥ उ॒त । ईम् । आशु॒ । मान॑म् । पिपर्ति ॥१३५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत श्वेत आशुपत्वा उतो पद्याभिर्यविष्ठः। उतेमाशु मानं पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । श्वेत: । आशुपत्वा: । उतो । पद्याभि: । वसिष्ठ: ॥ उत । ईम् । आशु । मानम् । पिपर्ति ॥१३५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    (उत) और यह (श्वेतः) शुद्ध वर्ण का, ज्ञानवान्, आदित्य के समान तेजस्वी विद्वान् (आशुपत्वा) शीघ्र ही मार्ग से जाने में कुशल है। (उतो) और (पद्याभिः) गमन करने की नाना क्रियाओं और मार्गों से (जविष्ठः) अतिवेग से जाने में कुशल हैं। (उत) और (ईम्) इसको (आशु) बहुत ही शीघ्र (मानम्) सत्कार (पिपर्त्ति) पूर्ण करता और पालन करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing

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