अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः। दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व ॥
स्वर सहित पद पाठभुक् । इ॑ति । अ॒भिऽग॑तु॒: । शल् । इ॑ति । अ॒पऽक्रा॑न्त॒: । फल् । इ॑ति । अ॒भिऽस्थि॑त: ॥ दुन्दुभि॑म् । आहनना॒भ्याम् । जरित: । आ । उथाम॑: । दै॒व ॥१३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
भुगित्यभिगतः शलित्यपक्रान्तः फलित्यभिष्ठितः। दुन्दुभिमाहननाभ्यां जरितरोथामो दैव ॥
स्वर रहित पद पाठभुक् । इति । अभिऽगतु: । शल् । इति । अपऽक्रान्त: । फल् । इति । अभिऽस्थित: ॥ दुन्दुभिम् । आहननाभ्याम् । जरित: । आ । उथाम: । दैव ॥१३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 1
विषय - जीव, ब्रह्म, प्रकृति।
भावार्थ -
(भुक्) ग्रह जीवात्मा भोक्ता है (इति) इस रूप से ही वह (अभिगतः) समीप इस देह में आ गया है। कहो कैसे ? उत्तर—जैसे कुत्ता, रोटी दिखाने पर आ जाता है। (शल् इति) जब शरीर शीर्ण हो जाता है तब वह ‘शल’ शरीरान्तरगामी आत्मा होने से आप से आप शरीर से (अपक्रान्तः) निकल भागता है। कहो कैसे ? जैसे पक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है। (फल् इति) वह फटकर दो भागों में टूटा (इति) इस प्रकार एकाकार प्रजापति भी स्त्री पुरुष दो मूर्ति होकर (अभिष्ठितः) यहां स्थित हो गया। कहाँ कैसे ? जैसे गाय का खुर। वह फटकर स्थित हो जाता है।
अथ प्रवल्हिकाः षट् प्रवादाः।
भा०-१ हे (दैव) देव ! विद्वन् ! (जरितः) हे जरितः स्तुतिकर्त्तः। (ओथामः=वदामः) तेरी कही प्रवृत्ति का रहस्य हम बतलाते है तुमने प्रथम कहा कि (विततौ किरणौ द्वौ तौ आपिनष्टि पुरुषः) दो साधन हैं उन दोनों को एक पुरुष पीसता है, कैसे (आहननाभ्याम् दुन्दुभिम्) जैसे दो आघात करने वाले दण्डों से एक ही पुरुष दोनों नक्कारों को एक ही साथ ताड़ता है इसी प्रकार एक आत्मा शरीर में प्राण और अपान द्वारा शरीर को चलाता है। और दो शक्तियों से परमेश्वर द्यौ और पृथिवी रूप ‘दुन्दुभि’ द्वन्द्व या जोड़े रूप से प्रतीत होते हुए इन को सन्चालित करता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - missing
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