अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
आ तू न॑ इन्द्र म॒द्र्यग्घुवा॒नः सोम॑पीतये। हरि॑भ्यां याह्यद्रिवः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । म॒द्र्य॑क् । हु॒वा॒न: । सोम॑ऽपीतये ॥ हरि॑ऽभ्याम् । या॒हि॒ । अ॒द्रि॒ऽव॒: ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू न इन्द्र मद्र्यग्घुवानः सोमपीतये। हरिभ्यां याह्यद्रिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । न: । इन्द्र । मद्र्यक् । हुवान: । सोमऽपीतये ॥ हरिऽभ्याम् । याहि । अद्रिऽव: ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) राजन् ! हे (अद्रिवः) वज्रवन् ! (हुवानः), स्मरण किया हुआ, प्रजा द्वारा बुलाया गया (मद्रयक्) मेरे सम्मुख होकर (नः) हमारे (सोमपीतये) राष्ट्र ऐश्वर्य के भोग के लिये (हरिभ्याम्) वेगवान् घोड़ों से, हरणशील उत्साह और पराक्रम से (आयाहि) हमें प्राप्त हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। नवर्चं सूक्तम्॥
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