अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 9
अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । सु॒खे । रथे॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ ॥ घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ब॒र्हि: । आ॒ऽसदे॑ ॥२३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं त्वा सुखे रथे वहतामिन्द्र केशिना। घृतस्नू बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । त्वा । सुखे । रथे । वहताम् । इन्द्र । केशिना ॥ घृतस्नू इति घृतऽस्नू । बर्हि: । आऽसदे ॥२३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 9
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! (सुखे रथे) सुखकारी रथ में (त्वा) तुझको (केशिना) लम्बे लम्बे केशों या बालों से सजे घोड़े (अर्वाञ्चम्) हमारे सम्मुख (घृतस्नू) तेज और बल का प्रस्रवण करने वाले वे दोनों (बर्हिः) वृद्धिशील राष्ट्र के ऊपर (आसदे) अधिष्ठातृ रूप से विराजने के लिये हमारे प्रति (वहताम्) बहन करें।
अध्यात्म में—(केशिना) क = आत्मा में या सुख में शयन करने वाले, उसमें आश्रित (घृतस्नू) तेजों को प्रकट करने वाले प्राण और उदान दोनों (सुखे) उत्तम हृदयाकाशरूप (रथे) रसस्वरूप (बर्हिः) परम वृद्धिशील ब्रह्म में (आसदे) आश्रय या स्थिति प्राप्त करने के लिये (अर्वाञ्चं) साक्षात् (वहताम्) ले जायं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। नवर्चं सूक्तम्॥
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