अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
मारे अ॒स्मद्वि मु॑मुचो॒ हरि॑प्रिया॒र्वाङ्या॑हि। इन्द्र॑ स्वधावो॒ मत्स्वे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठमा । आ॒रे । अ॒स्मत् । वि । मु॒मु॒च॒: । हरि॑ऽप्रिय । अ॒र्वाङ् । या॒हि॒ ॥ इन्द्र॑ । स्व॒धा॒ऽव॒: । मत्स्व॑ । इ॒ह ॥२३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मारे अस्मद्वि मुमुचो हरिप्रियार्वाङ्याहि। इन्द्र स्वधावो मत्स्वेह ॥
स्वर रहित पद पाठमा । आरे । अस्मत् । वि । मुमुच: । हरिऽप्रिय । अर्वाङ् । याहि ॥ इन्द्र । स्वधाऽव: । मत्स्व । इह ॥२३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 8
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (हरिप्रिय) हरणशील, ज्ञानशील पुरुषों के प्रिय ! तू (अर्वाङ् याहि) साक्षात् दर्शन दे, हमारे सम्मुख हमें प्राप्त हो। (अरे) हे परमेश्वर प्रभो ! (अस्मद्) हमसे तू (मा विमुमुच:) कभी न छूट, कभी अपने को दूर न कर। हे (स्वधावः) स्वधा = शरीरों को धारण करने वाले समष्टिचैतन्य के स्वामिन् ! प्रभो एवं अन्न और बलके स्वामिन् ! अथवा स्वयं निरपेक्ष होकर समस्त संसार के धारण पोषण करने की शक्ति वाले अद्वितीय ! तू (इह) हमारे इस हृदय-मन्दिर में एवं राष्ट्र में राजा के समान (मन्दस्व) आनन्द युक्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। नवर्चं सूक्तम्॥
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