अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
स म॑न्दस्वा॒ ह्यन्ध॑सो॒ राध॑से त॒न्वा म॒हे। न स्तो॒तारं॑ नि॒दे क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । म॒न्द॒स्व॒ । हि । अन्ध॑स: । राध॑से । त॒न्वा॑ । म॒हे ॥ न । स्तो॒तार॑म् । नि॒दे । क॒र॒: ॥२३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स मन्दस्वा ह्यन्धसो राधसे तन्वा महे। न स्तोतारं निदे करः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । मन्दस्व । हि । अन्धस: । राधसे । तन्वा । महे ॥ न । स्तोतारम् । निदे । कर: ॥२३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
विषय - राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(सः) वह तू (हि) निश्चय से (महे) बड़े भारी (अन्ध सः) अन्न के और जीवनोपयोगी भोग्य पदार्थों को (तन्वा) शरीर द्वारा (राधसे) लाभ करने के लिये (मन्दस्व) सदा तृप्त रह। तू (स्तोतारम्) यथार्थ गुणों के उपदेष्टा ज्ञान प्रवक्ता विद्वाज् को (निदे) लोक-निन्दा का पात्र (न करः) कभी न बनने दे। राजा विद्वानों पर होने वाले भूख आदि पीड़ा और जन-समाज के रूढीकृत अनादर का पात्र न होने दे।
ईश्वरपक्ष में—परमात्मा हम पर प्रसन्न हो, हमें शरीर से अन्नादि लाभ करावे। अपने स्तुतिकर्ता को निन्दा से बचाव।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। नवर्चं सूक्तम्॥
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