अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 10
अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑। गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । ए॒व । शव॑सा । शु॒षन्त॑म् । वि । वृ॒श्च॒त् । वज्रे॑ण । वृ॒त्रम् । इन्द्र॑: ॥ गा: । न । व्रा॒णा: । अ॒वनी॑: । अ॒मु॒ञ्च॒त् । अ॒भि। श्रव॑: । दा॒वने॑ । सऽचे॑ता ॥३५.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः। गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । एव । शवसा । शुषन्तम् । वि । वृश्चत् । वज्रेण । वृत्रम् । इन्द्र: ॥ गा: । न । व्राणा: । अवनी: । अमुञ्चत् । अभि। श्रव: । दावने । सऽचेता ॥३५.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 10
विषय - परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(अस्य इत् एव) उसके ही (शवसा) बल पराक्रम से (शुषन्तं) सूखते हुए, भयभीत (वृत्रम्) अज्ञान रूप वृत्र को, वायुके बल से भिन्न भिन्न होते मेघ को जिस प्रकार बिजुली नाश करती हैं अथवा पराक्रमी राजा के पराक्रम से जिस प्रकार भयभीत विघ्नकारी शत्रु को वीर राजा नाश करता है उसी प्रकार (वज्रेण) ज्ञान-वज्र से (इन्द्रः) वह स्वयं ऐश्वर्यवान् (विवृश्चत्) नाना प्रकार से नाश करता है। और जिस प्रकार इन्द्र, वायु मेघ से (अवनीः) जन्तुओं की रक्षा करने वाले व्राणाः) रुके हुए जलों को नीचे बरसाता है और फिर (श्रवः) अन्न उत्पन्न होता है उसी प्रकार वह इन्द्र भी (गोः न) सूर्य की गौओं, रश्मियों के समान (अवनीः) अपने पालन करने वाली भूमियों को (अमुञ्चत्) त्यागता या प्रदान करता है और वह (सचेताः) प्रेम युक्त होकर (दावने) दानशील पुरुष को (श्रवः) अन्न और ख्याति और ज्ञान (अभि अमुञ्चत्) सब प्रकार से देता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा गौतम ऋषिः। इन्द्रो देवता १, २, ७, ९, १४, १६ त्रिष्टुभः। शेषा पंक्तयः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें