अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 16
ए॒वा ते॑ हारियोजना सुवृ॒क्तीन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि॒ गोत॑मासो अक्रन्। ऐषु॑ वि॒श्वपे॑शसं॒ धियं॑ धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । ते॒ । हा॒रि॒ऽयो॒ज॒न॒ । सु॒ऽवृ॒क्ति । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । गोत॑मास: । अ॒क्र॒न् ॥ आ । ए॒षु॒ । वि॒श्वऽपे॑शसम् । धिय॑म् । धा: । प्रा॒त: । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सु: । ज॒ग॒म्या॒त् ॥३५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा ते हारियोजना सुवृक्तीन्द्र ब्रह्माणि गोतमासो अक्रन्। ऐषु विश्वपेशसं धियं धाः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठएव । ते । हारिऽयोजन । सुऽवृक्ति । इन्द्र । ब्रह्माणि । गोतमास: । अक्रन् ॥ आ । एषु । विश्वऽपेशसम् । धियम् । धा: । प्रात: । मक्षु । धियाऽवसु: । जगम्यात् ॥३५.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 16
विषय - परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे (हारियोजन) ज्ञानी पुरुषों को योग द्वारा साक्षात् करने योग्य समस्त सूर्यो को प्रेरणा करने हारे ! हे (इन्द्र) परमेश्वर ! वेगवान् पदार्थों और प्राणों को युक्त करने वाले ! आत्मन् ! (ते एव) तेरे ही लिये (गोतमासः) उत्तम वेदवाणी में निष्ठ विद्वान् पुरुष (सुवृक्ति) उत्तम हृदय हारि (ब्रह्माणि) वेद मंत्रों और ब्रह्मज्ञान के वचनों का (अक्रन्) साक्षात् करते हैं (एषु) उनमें ही तू (विश्वपशेसं धियं) नाना मनोहर स्वरूप वाली धारणावती बुद्धि को (धाः) प्रदान करता है। वह इन्द, (प्रातः) प्रातः काल ही (धियावसुः) समस्त कर्मैश्वर्यवान्, परमेश्वर (मक्षू) यथा शीघ्र (आजगम्यात्) ज्ञान करने योग्य, प्राप्तव्य एवं उपासना करने योग्य है। अथवा वही हमें नित्य प्रातः प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा गौतम ऋषिः। इन्द्रो देवता १, २, ७, ९, १४, १६ त्रिष्टुभः। शेषा पंक्तयः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
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