अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
अ॒स्येदु॑ त्वे॒षसा॑ रन्त॒ सिन्ध॑वः॒ परि॒ यद्वज्रे॑ण सी॒मय॑च्छत्। ई॑शान॒कृद्दा॒शुषे॑ दश॒स्यन्तु॒र्वीत॑ये गा॒धं तु॒र्वणिः॒ कः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्वे॒षसा॑ । र॒न्त॒ । सिन्ध॑व: । परि॑ । यत् । वज्रे॑ण । सी॒म् । अय॑च्छत् ॥ ई॒शा॒न॒ऽकृत् । दा॒शुषे॑ । द॒श॒स्यन् । तु॒र्वीत॑ये । गा॒धम् । तु॒र्वणि॑: । क॒रिति॑ । क: ॥३५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदु त्वेषसा रन्त सिन्धवः परि यद्वज्रेण सीमयच्छत्। ईशानकृद्दाशुषे दशस्यन्तुर्वीतये गाधं तुर्वणिः कः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । ऊं इति । त्वेषसा । रन्त । सिन्धव: । परि । यत् । वज्रेण । सीम् । अयच्छत् ॥ ईशानऽकृत् । दाशुषे । दशस्यन् । तुर्वीतये । गाधम् । तुर्वणि: । करिति । क: ॥३५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
विषय - परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(अस्य इत्) इस परमेश्वर के ही (त्वेषसा) दीप्तियुक्त प्रखर तेज से (सिन्धवः) बहने वाले जल (रन्त) नाना प्रकार की क्रीड़ाएं करते हैं। (यत्) क्योंकि वह ही उनको (वज्रेण) अपने बल से (सीम्) सब प्रकार से (परि अयच्छत्) नियम में बांधता है। वह ही (ईशानकृत्) समस्त सामर्थ्यवान्, ऐश्वर्ययुक्त सूर्य, वायु, विद्युत् आदि पदार्थों का रचयिता होकर (दाशुषे) दानशील पुरुष स्वयं (दशस्यन्) बहुत ऐश्वर्य प्रदान करता है और वह (तुर्वणिः) अति वेग से सर्वत्र व्याप्तिशील विद्युत् जिस प्रकार (तुर्वीतये) अति वेग से जाने वाले पुरुष को (गाधं कः) अपना पूर्ण वैद्युतिक ऐश्वर्य सामर्थ्य प्रदान करती है उसी प्रकार वह परमेश्वर भी (तुर्वणिः) अति शीघ्र सबको प्राप्त होने हारा होकर (तुर्वीतये) शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होने वाले साधक पुरुष को (गांध कः) अपना ज्ञानैश्वर्य प्रदान करता है।
सामर्थ्यवान् राजा या ऐंजिनीयर पुरुष के पक्ष में—उसके प्रताप से नदियें नहर के रूपों में क्रीड़ा करती हैं। वह वज्र से, शक्ति से उनको बांधों द्वारा वश करता। समस्त (ईशानकृत्) विद्युत्, वायु आदि शक्तियों को उत्पन्न करता है। शीघ्रगामी के लिये (गाधं कः) उसी प्रकार के उत्तम साधन, ऐश्वर्य उत्पन्न करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा गौतम ऋषिः। इन्द्रो देवता १, २, ७, ९, १४, १६ त्रिष्टुभः। शेषा पंक्तयः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
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