अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
तमु॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरो॒ नव॑ग्वाः स॒प्त विप्रा॑सो अ॒भि वा॒जय॑न्तः। न॑क्षद्दा॒भं ततु॑रिं पर्वते॒ष्ठामद्रो॑घवाचं म॒तिभिः॒ शवि॑ष्ठम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊं॒ इति॑ । न॒: । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । नव॑ऽग्वा: । स॒प्त । विप्रा॑स: । अ॒नि । वा॒जय॑न्त: ॥ न॒क्ष॒त्ऽदा॒भम् । ततु॑रिम् । प॒र्व॒ते॒ऽस्थाम् । अद्रो॑घऽवाचम् । म॒तिऽभि॑: । शवि॑ष्ठम् ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः। नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभिः शविष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊं इति । न: । पूर्वे । पितर: । नवऽग्वा: । सप्त । विप्रास: । अनि । वाजयन्त: ॥ नक्षत्ऽदाभम् । ततुरिम् । पर्वतेऽस्थाम् । अद्रोघऽवाचम् । मतिऽभि: । शविष्ठम् ॥३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर स्तुति
भावार्थ -
(नः पूर्वे पितरः) हमारे पूर्व पालक, (नवग्वाः) नव स्तुतिवाणियों को उच्चारण करने वाले, (सप्त) सप्त, सातों प्राण जिस प्रकार आत्मा की उपासना करते हैं उसी प्रकार उनके समान परमात्मा की उपासना करने और उसके प्रति ज्ञानमार्ग से सर्पणशील, (विप्रासः) परम मेधावी, (तम उ अभि वाजयन्तः) उसी का ही साक्षात् ज्ञान लाभ करते हुए स्तुति किया करते हैं। वे (नक्षद्-दाभम्) व्याप्त दोषों और शत्रुओं के नाशक, दुःखों से तारक (पर्वतेष्ठाम्) पर्वत पर स्थिर सर्वोच्च (अद्रो घवाचम्) द्रोह रहित वाणी के या आज्ञा के देने वाले, अनुलंघनीय आज्ञा के दाता (शविष्ठम्) अतिबलशाली, शक्तिमान् उस इन्द्र को (मतिभिः) मनन योग्य स्तुतियों द्वारा मनन करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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