अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
तं वो॑ धि॒या नव्य॑स्या॒ शवि॑ष्ठं प्र॒त्नं प्र॑त्न॒वत्प॑रितंस॒यध्यै॑। स नो॑ वक्षदनिमा॒नः सु॒वह्मेन्द्रो॒ विश्वा॒न्यति॑ दु॒र्गहा॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒: । धि॒या । नव्य॑स्या । शवि॑ष्ठम् । प्र॒त्नम् । प्र॒त्न॒ऽवत् । प॒रि॒ऽतं॒स॒यध्यै॑ ॥ स: । न॒: । व॒क्ष॒त् । अ॒नि॒ऽमा॒न: । सु॒ऽवह्न्या॑ । इन्द्र॑: । विश्वा॑नि । अति॑ । दु॒:ऽगहा॑नि ॥३६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्नं प्रत्नवत्परितंसयध्यै। स नो वक्षदनिमानः सुवह्मेन्द्रो विश्वान्यति दुर्गहाणि ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । व: । धिया । नव्यस्या । शविष्ठम् । प्रत्नम् । प्रत्नऽवत् । परिऽतंसयध्यै ॥ स: । न: । वक्षत् । अनिऽमान: । सुऽवह्न्या । इन्द्र: । विश्वानि । अति । दु:ऽगहानि ॥३६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
विषय - ईश्वर स्तुति
भावार्थ -
(वः) आप लोग (तं) उस (शविष्ठं) अति शक्तिशाली (प्रत्नं) अति पुराण पुरुष को (प्रत्नवत्) पुरातन विद्वानों के समान ही हे मनुष्यो ! (परि तंसयध्यै) स्तुतियों से अलंकृत करने का यत्न करो। (सः) वह (सुबह्मा) उत्तम पदतक पहुंचाने में समर्थ, एवं समस्त उत्तम पद और पदार्थों को धारण करने वाला, (इन्द्रः) महाराजा के समान महान् ऐश्वर्य युक्त परमेश्वर (अनिमानः) अनन्त बलशाली होकर (विश्वानि) समस्त (दुर्गहाणि) कठिनता से पार किये जाने योग्य, दुर्गम संकटों से (अति वक्षत्) पार कर देता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें