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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    अ॒या ह॒ त्यं मा॒यया॑ वावृधा॒नं म॑नो॒जुवा॑ स्वतवः॒ पर्व॑तेन। अच्यु॑ता चिद्वीडि॒ता स्वो॑जो रु॒जो वि दृ॒ढा धृ॑ष॒ता वि॑रप्शिन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒या । ह॒ । त्यम् । मा॒यया॑ । व॒वृ॒धा॒नम् । म॒न॒:ऽजुवा॑ । स्व॒ऽत॒व॒: । पर्व॑तेन ॥ अच्यु॑ता । चि॒त् । वी॒लि॒ता । सु॒ऽओ॒ज॒: । रु॒ज: । वि । दृ॒ह्ला । धृ॒ष॒ता । वि॒र॒प्शि॒न् ॥३६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अया ह त्यं मायया वावृधानं मनोजुवा स्वतवः पर्वतेन। अच्युता चिद्वीडिता स्वोजो रुजो वि दृढा धृषता विरप्शिन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अया । ह । त्यम् । मायया । ववृधानम् । मन:ऽजुवा । स्वऽतव: । पर्वतेन ॥ अच्युता । चित् । वीलिता । सुऽओज: । रुज: । वि । दृह्ला । धृषता । विरप्शिन् ॥३६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (स्वतवः) स्वयं बलस्वरूप ! इन्द्र ! परमेश्वर ! (अमा) इस प्रत्यक्ष (मामया) माया, प्रकृति की शक्ति से (वावृधानं) बढ़ने वाले (त्यं) उस शत्रु के समान अज्ञान आवरणको (मनोजुवा) मन से प्राप्तव्य (पर्वतेन) पर्ववत् या पालनकारी ज्ञानवज्र से (विरुजः) विविध प्रकार से नाश कर। और हे विरप्शिन् ! हे महान् ! (अच्युता) न च्युत होने वाली, (वीलिता) हृष्ट पुष्ट अङ्ग वाली (दृढा) दृढ़ सेनाओं को हे (स्वोजः) उत्तम बलशालिन् ! तू (धृषता) शत्रु को घर्षण करने वाले बल से (वि रुजः) विनाश कर। राजा के पक्ष में—(अया मायया वावृधानं त्यं) इस प्रकार की माया से बढ़ते हुए शत्रु को तू (मनोजुवा पर्वतेन) मनोवेग से चलने वाले वज्र से नाश कर। हे विरप्शिन् ! महान् ! घर्षणशील सामर्थ्य या वज्र से (अच्युता वीलिता विरुजः) दृढ़ सेनाबलों का भी विनाश कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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