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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३६

    आ जना॑य॒ द्रुह्व॑णे॒ पार्थि॑वानि दि॒व्यानि॑ दीपयो॒ऽन्तरि॑क्षा। तपा॑ वृषन्वि॒श्वतः॑ शो॒चिषा॒ तान्ब्र॑ह्म॒द्विषे॒ शोच॑य॒ क्षाम॒पश्च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । जना॑य । द्रुह्व॑णे । पार्थि॑वानि । दि॒व्यानि॑ । दी॒प॒य॒: । अ॒न्तरि॑क्षा ॥ तप॑ । वृ॒ष॒न् । वि॒श्वत॑: । शो॒चिषा॑ । तान् । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑ । शो॒च॒य॒ । क्षाम् । अ॒प: । च॒ ॥३६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ जनाय द्रुह्वणे पार्थिवानि दिव्यानि दीपयोऽन्तरिक्षा। तपा वृषन्विश्वतः शोचिषा तान्ब्रह्मद्विषे शोचय क्षामपश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । जनाय । द्रुह्वणे । पार्थिवानि । दिव्यानि । दीपय: । अन्तरिक्षा ॥ तप । वृषन् । विश्वत: । शोचिषा । तान् । ब्रह्मऽद्विषे । शोचय । क्षाम् । अप: । च ॥३६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 36; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे (वृषन्) समस्त सुखों के वर्षण करने हारे ! तू (द्रुह्लणे जनाय) दोहशील पुरुष के संताप के लिये (पार्थिवानि दिव्यानि अन्तरिक्षा) पृथिवी, आकाश और अन्तरिक्ष के पदार्थों को भी (आदीपय) खूब अच्छी प्रकार प्रज्वालित कर, (तान्) उन द्रोही पुरुषों को (शोचिषा) ज्वालामय तेज से (विश्वतः तप) सब और से संतप्त कर। (ब्रह्मद्विषे) विद्वान् ब्रह्मज्ञानी पुरुषों के शत्रु के लिये (क्षाम् अपः च) पृथिवी और जलों को भी (शोचय) प्राप्त कर। वे उसको सुखकारी न होकर कष्टदायी हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाज ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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