अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
सूक्त - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
प्र या जिगा॑ति ख॒र्गले॑व॒ नक्त॒मप॑ द्रु॒हुस्त॒न्वं गूह॑माना। व॒व्रम॑न॒न्तमव॒ सा प॑दीष्ट॒ ग्रावा॑णो घ्नन्तु र॒क्षस॑ उप॒ब्दैः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । या । जिगा॑ति । ख॒र्गला॑ऽइव । नक्त॑म् । अप॑ । द्रु॒हु: । त॒न्व᳡म् । गूह॑माना । व॒व्रम् । अ॒न॒न्तम् । अव॑ । सा । प॒दी॒ष्ट॒ । ग्रावा॑ण: । घ्न॒न्तु॒ । र॒क्षस॑: । उ॒प॒ब्दै: ॥४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र या जिगाति खर्गलेव नक्तमप द्रुहुस्तन्वं गूहमाना। वव्रमनन्तमव सा पदीष्ट ग्रावाणो घ्नन्तु रक्षस उपब्दैः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । या । जिगाति । खर्गलाऽइव । नक्तम् । अप । द्रुहु: । तन्वम् । गूहमाना । वव्रम् । अनन्तम् । अव । सा । पदीष्ट । ग्रावाण: । घ्नन्तु । रक्षस: । उपब्दै: ॥४.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 17
विषय - दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ -
अपराधिनी स्त्रियों को दण्ड। (या) जो स्त्री (खर्गला इव) उल्लूनी के समान (नक्तम्) रात को (तन्वम्) अपने शरीर को अन्धकार में (गूहमाना) छिपाती हुई (प्र जिगाति) घूमा करे या (द्रुहुः) अपने सम्बन्धियों से लड़ कर (अप जिगाति) घर छोड़ कर भाग जाय। (सा) वह स्त्री (अनन्तम्) अनन्त काल के लिये (वव्रम्) कैद, आवृत स्थान या गढ़े में (पदीष्ट) प्राप्त हो। और यदि स्त्री न होकर पुरुष उपरोक्त दोष करे तो ऐसे (रक्षसः) दुष्टों को (ग्रावाणः) विद्वान् लोग (उपब्दैः) अपने वाक्-प्रहारों से या तीक्ष्ण दण्डाज्ञाओं से (घ्नन्तु) दण्डित करें। अथवा (ग्रावाणः) पत्थर (उपब्दैः) अपने घरघराते शब्दों सहित उन राक्षसों का विनाश करें।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘नक्तमपद्रुहा तन्वं’ (वृ०) ‘वव्रां अनन्तां अब’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
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