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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त

    इन्द्रा॑सोमा॒ सम॒घशं॑सम॒भ्यघं तपु॑र्ययस्तु च॒रुर॑ग्नि॒माँ इ॑व। ब्र॑ह्म॒द्विषे॑ क्र॒व्यादे॑ घो॒रच॑क्षसे॒ द्वेषो॑ धत्तमनवा॒यं कि॑मीदिने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । सम् । अ॒घऽशं॑सम् ।अ॒भि । अ॒घम् । तपु॑: । य॒य॒स्तु॒ । च॒रु: । अ॒ग्नि॒मान्ऽइ॑व । ब्र॒ह्म॒द्विषे॑ । क्र॒व्यऽअदे॑ । घो॒रऽच॑क्षसे । द्वेष॑: । ध॒त्त॒म् । अ॒न॒वा॒यम् । कि॒मी॒द‍िने॑ ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा समघशंसमभ्यघं तपुर्ययस्तु चरुरग्निमाँ इव। ब्रह्मद्विषे क्रव्यादे घोरचक्षसे द्वेषो धत्तमनवायं किमीदिने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा । सम् । अघऽशंसम् ।अभि । अघम् । तपु: । ययस्तु । चरु: । अग्निमान्ऽइव । ब्रह्मद्विषे । क्रव्यऽअदे । घोरऽचक्षसे । द्वेष: । धत्तम् । अनवायम् । किमीद‍िने ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (इन्द्रासोमा) हे इन्द्र और सोम ! (अघ-शंसम्) पाप का उपदेश करने वाले, पाप की कथा कहने वाले (अघम्) पाप का या पापी का (सम् अभि) अच्छी प्रकार मुकाबला करो। (अग्निमान् चरुः इव) आग पर चढ़े हुए हाण्डी के समान वह पाप और पापी (तपुः ययस्तु) संताप को प्राप्त हो और पीड़ा अनुभव करे। और (घोर-चक्षसे) घोर चक्षुवाले, क्रूर (ब्रह्मद्विषे) ब्रह्म वेद को जानने वाले विद्वान् ब्राह्मणों के द्वेषी (क्रव्यादे) मांसभोजी और (किमीदिने) दूसरों के जान माल को तुच्छ समझने वाले या ‘अब क्या, अब क्या’ इस प्रकार काल को मूर्खता से व्यसनों में लगाने वाले की (अनवायम्) निरन्तर (द्वेषः धत्तम्) उपेक्षा करो, उसको कभी मत चाहो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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