अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - जगती
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
78
इन्द्रा॑सोमा॒ सम॒घशं॑सम॒भ्यघं तपु॑र्ययस्तु च॒रुर॑ग्नि॒माँ इ॑व। ब्र॑ह्म॒द्विषे॑ क्र॒व्यादे॑ घो॒रच॑क्षसे॒ द्वेषो॑ धत्तमनवा॒यं कि॑मीदिने ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमा । सम् । अ॒घऽशं॑सम् ।अ॒भि । अ॒घम् । तपु॑: । य॒य॒स्तु॒ । च॒रु: । अ॒ग्नि॒मान्ऽइ॑व । ब्र॒ह्म॒द्विषे॑ । क्र॒व्यऽअदे॑ । घो॒रऽच॑क्षसे । द्वेष॑: । ध॒त्त॒म् । अ॒न॒वा॒यम् । कि॒मी॒दिने॑ ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमा समघशंसमभ्यघं तपुर्ययस्तु चरुरग्निमाँ इव। ब्रह्मद्विषे क्रव्यादे घोरचक्षसे द्वेषो धत्तमनवायं किमीदिने ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमा । सम् । अघऽशंसम् ।अभि । अघम् । तपु: । ययस्तु । चरु: । अग्निमान्ऽइव । ब्रह्मद्विषे । क्रव्यऽअदे । घोरऽचक्षसे । द्वेष: । धत्तम् । अनवायम् । किमीदिने ॥४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रासोमा) हे सूर्य और चन्द्र [समान राजा और मन्त्री !] (अघशंसम् अभि) बुरा चीतनेवाले को (तपुः) तपन करनेवाला (अघम्) दुःख (सम् ययस्तु) क्लेश देता रहे, (इव) जैसे (अग्निमान्) अग्निवाला (चरुः) चरु [पात्र] क्लेश देता है। (ब्रह्मद्विषे) वेद के द्वेषी, (क्रव्यादे) मांस खानेवाले, (किमीदिने) लुतरे के लिये (अनवायम्) निरन्तर (द्वेषः) द्वेष (धत्तम्) तुम दोनों धारण करो ॥२॥
भावार्थ
राजा और मन्त्री घोर पापियों को निरन्तर दण्ड देकर प्रजापालन करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(इन्द्रासोमा) म० १। (सम्) सम्यक् (अवशंसम्) अ० ४।२१।७। अनिष्टं चिन्तकम् (अभि) प्रति (अघम्) दुःखम् (तपुः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। तप दाहे-उसि। तापकम् (ययस्तु) यसु प्रयत्ने। आयासयुक्तं क्लेशप्रदं भवतु (चरुः) पात्रम् (अग्निमान्) अग्नियुक्तः (इव) यथा (ब्रह्मद्विषे) वेदद्वेष्ट्रे, (क्रव्यादे) मांसभक्षकाय (घोरचक्षसे) चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-असुन्। क्रूररूपाय। परुषवचनाय (द्वेषः) अप्रीतिम् (धत्तम्) धारयतम् (अनवायम्) अन+अव परिभवे+इण् गतौ-अच्। अव्यवहितम्। निरन्तरम् (किमीदिने) अ० १।७।१। पिशुनाय ॥
विषय
'ब्रह्मद्विट्, क्रव्याद,घोरचक्षा:, किमीदी' न बनना
पदार्थ
१. (इन्द्रासोमा) = जितेन्द्रियता व सौम्यता के दिव्यभावो! (अघशंसम्) = पाप का शसंन करनेवाले (अघम्) = पापी को (सम्) = आप दोनों मिलकर (अभि) [भवतम्] = अभिभूत करो। (तपुः) = यह सन्तापक राक्षसीभाव (अग्रिमान् चरु: इव) = अग्निवाले हविर्द्रव्य की भाँति (ययस्तु) आयास को प्राप्त हो भस्मीभूत हो जाए। जैसे अग्नि में डाला हुआ चरु भस्म हो जाता है, इसी प्रकार ये सन्तापकभाव जितेन्द्रियता व सौम्यता में भस्म हो जाएँ। २. हे इन्द्रासोमा। आप (ब्रहाद्विषे) = ज्ञान से अप्रीतिवाले, (क्रव्यादे) = मांसभक्षक, चोरचक्षसे क्रूरदृष्टि, (किमीदिने) = [किम् इदानीं इति पृच्छते] पिशुनता के भाव के लिए (अनवायम्) = [अव्यवधानं यथा भवति तथा-सा०] निरन्तर (द्वेषः) = अप्रीति को (धत्तम्) = धारण करो। जितेन्द्रियता व सौम्यता हमें 'ब्रह्माद्विद, क्रव्याद, घोरचक्षसा व किमीदी' बनने से बचाएँ।
भावार्थ
जितेन्द्रियता व सौम्यता की अग्नि में सब सन्तापकभाव भस्म हो जाएँ। हम 'ज्ञान की रुचिवाले, वानस्पतिक भोजन करनेवाले, सौम्पदृष्टि व अनिन्दक' बनें।
भाषार्थ
(इन्द्रासोमा) हे सम्राट् तथा सेनाध्यक्ष ! (अघशंसम्) पाप की प्रशंसा करने वाले, (अघम्) पापी के (अभि) प्रति (तपुः) सन्तापी-अस्त्र (सम् ययस्तु) सम्यक्तया प्राप्त हो, (इव) जैसे कि (चः) चावल पकाने वाला माण्ड (अग्निमान्) अग्निवाला हो जाता है, अग्नि द्वारा सन्तप्त हो जाता है। तथा (ब्रह्मद्विषे) वेद और परमेश्वर के द्वेषी के लिये तथा (क्रव्यादे) मांसभक्षक के लिये और (घोरचक्षसे) भयङ्कर दृष्टि वाले तथा (किमीदिने) भेद लेने वाले गुप्तचर के लिये (अनवायम्) विना व्यवधान अर्थात् सदा (द्वेषः धत्तम्) द्वेष धारण करो।
टिप्पणी
[पापी को तो सन्तापी अस्त्र द्वारा सन्तप्त करने और ब्रह्मद्वेषी आदि के प्रति सदा द्वेष रखने का विधान हुआ है।]
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
(इन्द्रासोमा) हे इन्द्र और सोम ! (अघ-शंसम्) पाप का उपदेश करने वाले, पाप की कथा कहने वाले (अघम्) पाप का या पापी का (सम् अभि) अच्छी प्रकार मुकाबला करो। (अग्निमान् चरुः इव) आग पर चढ़े हुए हाण्डी के समान वह पाप और पापी (तपुः ययस्तु) संताप को प्राप्त हो और पीड़ा अनुभव करे। और (घोर-चक्षसे) घोर चक्षुवाले, क्रूर (ब्रह्मद्विषे) ब्रह्म वेद को जानने वाले विद्वान् ब्राह्मणों के द्वेषी (क्रव्यादे) मांसभोजी और (किमीदिने) दूसरों के जान माल को तुच्छ समझने वाले या ‘अब क्या, अब क्या’ इस प्रकार काल को मूर्खता से व्यसनों में लगाने वाले की (अनवायम्) निरन्तर (द्वेषः धत्तम्) उपेक्षा करो, उसको कभी मत चाहो।
टिप्पणी
‘परोपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि’ अथर्व० ६। ४५। १। (द्वि०) ‘चरुरग्निवां इव’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
Indra and Soma, lord of power, and lord of peace and harmony, let the sinner and the criminal, supporter and admirer of sin and crime along with the sin and crime, and the tormentor of the good and innocent go to the fire of discipline, punishment, or elimination like a handful of food meant for the fire. Never compromise with the enemy of nature, divinity, humanity and the wisdom of humanity, the cannibal and the carrion eater, the man of hate and evil eye, the sceptic, the cynic and the negationist. For them have the contempt they deserve, and either correct them or eliminate them.
Translation
O Lord of resplendence and love-divine, treat him mercilessly who is destructive and indulges in undesirable activities. Consume him with your wrath; let him perish thereby like a libation in fire. Never hesitate to show hatred towards one who hates people of divine learning, who is a cannibal, the hideous, the villain. (Also Rg. VII.104.2)
Translation
O King and premier! bravely encounter the offender or sinner who encourage the spread and tendency of the offence or sin and make him realize the burning consequence of his offence like the cauldron put on the flames of fire. O mighty ones! Always overlook and keep away with discard the man who casts an oblique eye on the people, who devours the Living of the people, who discard knowledge and who takes exorbitant interest on money or does not do anything for the good of the people.
Translation
O King and the Commander-in-chief, boldly face the sinful preacher of vice. May sin be burnt like an oblation put into fire. Keep perpetual dislike for the enemy of the Vedas, eater of flesh, the fearful-eyed Cormorant]
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(इन्द्रासोमा) म० १। (सम्) सम्यक् (अवशंसम्) अ० ४।२१।७। अनिष्टं चिन्तकम् (अभि) प्रति (अघम्) दुःखम् (तपुः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। तप दाहे-उसि। तापकम् (ययस्तु) यसु प्रयत्ने। आयासयुक्तं क्लेशप्रदं भवतु (चरुः) पात्रम् (अग्निमान्) अग्नियुक्तः (इव) यथा (ब्रह्मद्विषे) वेदद्वेष्ट्रे, (क्रव्यादे) मांसभक्षकाय (घोरचक्षसे) चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-असुन्। क्रूररूपाय। परुषवचनाय (द्वेषः) अप्रीतिम् (धत्तम्) धारयतम् (अनवायम्) अन+अव परिभवे+इण् गतौ-अच्। अव्यवहितम्। निरन्तरम् (किमीदिने) अ० १।७।१। पिशुनाय ॥
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