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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    70

    मा नो॒ रक्षो॑ अ॒भि न॑ड्यातु॒माव॒दपो॑च्छन्तु मिथु॒ना ये कि॑मी॒दिनः॑। पृ॑थि॒वी नः॒ पार्थि॑वात्पा॒त्वंह॑सो॒ऽन्तरि॑क्षं दि॒व्यात्पा॑त्व॒स्मान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । रक्ष॑: । अ॒भि॒ । न॒ट् । या॒तु॒ऽमाव॑त् । अप॑ । उ॒च्छ॒न्तु॒ । मि॒थु॒ना । ये । कि॒मी॒दिन॑: । पृ॒थि॒वी । न॒: । पार्थि॑वात् । पा॒तु॒ । अंह॑स: । अ॒न्‍तरि॑क्षम् । दि॒व्यात् । पा॒तु॒ । अ॒स्मान् ॥४.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो रक्षो अभि नड्यातुमावदपोच्छन्तु मिथुना ये किमीदिनः। पृथिवी नः पार्थिवात्पात्वंहसोऽन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । रक्ष: । अभि । नट् । यातुऽमावत् । अप । उच्छन्तु । मिथुना । ये । किमीदिन: । पृथिवी । न: । पार्थिवात् । पातु । अंहस: । अन्‍तरिक्षम् । दिव्यात् । पातु । अस्मान् ॥४.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यातुमावत्) पीड़ा रूप सम्पत्तिवाला (रक्षः) राक्षस (नः) हम तक (मा अभि नट्) कभी न पहुँचे, (मिथुनाः) हिंसक लोग, (ये) जो (किमीदिनः) लुतरे हैं, (अप उच्छन्तु) दूर जावें। (पृथिवी) पृथिवी (नः) हमको (पार्थिवात्) पार्थिव (अंहसः) कष्ट से (पातु) बचावे, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (दिव्यात्) आकाशीय [कष्ट] से (अस्मान्) हमें (पातु) बचावे ॥२३॥

    भावार्थ

    शत्रुनाशक राजा के शासन में प्रजागण सब उपद्रवों को हटाकर पार्थिव और आकाशीय पदार्थों के उपयोग से प्रसन्न रहें ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(नः) अस्मान् (रक्षः) राक्षसः (अभि) अभितः (मा नट्) नशत् व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। नशतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। अडभावः। मा प्राप्नोतु (यातुमावत्) इन्दिरा लोकमाता मा। इत्यमरः १।२९। मा लक्ष्मीः। पीडारूपसम्पत्तियुक्तम् (अप उच्छन्तु) उच्छी विवासने। अप गच्छन्तु (मिथुनाः) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। मिथृ वधे मेधायां च-उनन्। हिंसकाः (ये) (किमीदिनः) अ० १।७।१। पिशुनाः (पृथिवी) (नः) अस्मान् (पार्थिवात्) पृथिवीसम्बन्धिनः (पातु) (अंहसः) पीडनात् (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षपदार्थजातम् (दिव्यात्) अन्तरिक्षे भवात् (पातु) (अस्मान्) ॥

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    विषय

    पार्थिव व दिव्य कष्टों से दूर

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (न:) = हमें (यातुमावत् रक्ष:) = कोई भी हिंसक राक्षसीभाव (मा अभिनट्) = व्याप्त न कर ले। (किमीदिन:) = [किम् इदानीम् इति चरन्तः], अब किसका संहार करें-इसप्रकार सोचकर गति करते हुए ये (मिथुना:) = जो मिथुनभूत स्त्री-पुमान् हैं, वे (अप उच्छन्तु) = हमसे दूर हो जाएँ। हमारा सम्पर्क इन राक्षसों व किमीदियों से न हो। २. (पृथिवी) = यह पृथिवी (न:) = हमें पार्थिवात् (अंहसः) = शरीररूप पृथिवी से होनेवाले कष्टों से (पातु) = रक्षित करे, तथा (अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्ष (अस्मान) = हमें (दिव्यात्) = मस्तिष्करूप ह्युलोक से होनेवाले कष्ट से (पातु) = बचाए। हमारे मस्तिष्करूप झुलोक में कभी अन्धकार का राज्य न हो।

    भावार्थ

    हम राक्षसी वृत्तिवाले हिंसक लोगों के सम्पर्क से दूर रहें, पार्थिव व दिव्य कष्टों से बचे रहें।

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    भाषार्थ

    (नः) हमें (यातुमावद्) यातना देने वाले (रक्षः) राक्षस स्वभाव वाला व्यक्ति [शत्रु] (ना)(अभिनद्) प्राप्त हो, (ये) जो (किमीदिनः) अब क्या हो रहा है, यह क्या है, इस प्रकार प्रश्नों द्वारा भेद लेने वाले (मिथुना) स्त्री-पुरुषरूप राक्षस हैं, वे (अपोच्छन्तु) अपगत हो जाय [हमारे राष्ट्र से]। ताकि (पृथिवी) पृथिवी (नः) हमें (पार्थिवात्) पार्थिव पदार्थों के [अभाव से होने वाले] (अंहसः) कष्ट से (पातु) रक्षित करे, और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (अस्मान्) हमें (दिव्यात्) दिव्य पदार्थों के [अभाव से होने वाले] कष्ट से (पातु) रक्षित करे।

    टिप्पणी

    [अभिनट् =अभि + नश् (व्याप्तिकर्मा,' निघं २।१८)। अपोच्छन्तु= अप + उछी विवासे (भ्वादिः)। किमीदिनः (निरुक्त ६।३।१२)। अंहसः = अंहतिश्च अंहश्य अंहुश्च हन्तेः (४।४।२५; पदसंख्या ५७)। मृत्यु या मृत्युसदृश कष्ट। राक्षस उत्पात द्वारा कष्टोत्पादक होते हैं। वे हमारे प्रश्नों [पार्थिवात्], तथा प्राणवायु [अन्तरिक्ष] को दुषित भी कर देते हैं। उनकी सत्ता कष्टदायक और मृत्युकारक भी हो जाती है। राक्षसों के न रहने से पृथिवी पार्थिव अन्न प्रदान कर, तथा अन्तरिक्ष दिव्य-प्राणवायुं देकर हमारी रक्षा करते हैं। यातुमावत्= यातु (यातना) + मां (ज्ञानम्) +वत् (मतुप्); मा= ज्ञानम् यथा मा, प्रभा प्रमाणम्। अर्थात् यातना विधिविज्ञ]।

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    (यातुमावत्) पीड़ादायक (रक्षः) दुष्ट पुरुष (नः) हम तक (मा) कभी न (अभि नट्) पहुंचे। (ये) जो (किमीदिनः) दूसरों की जान माल को कुछ भी न जानने वाले (मिथुना) स्त्री पुरुष हैं वे (अप उच्छन्तु) हमसे दूर रहें। (पार्थिवात् अंहसः) पृथिवी सम्बन्धी कष्ट से (पृथिवी) पृथिवी और (दिव्यात्) आकाश सम्बन्धी (अंहसः) कष्ट से (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (अस्मान्) हमारी (पातु) रक्षा करे।

    टिप्पणी

    ‘यातुमावतामपोच्छतु मिथुना या किमीदिना’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    Let no wicked demonic forces harm and destroy us. Let the darkness of tormentors harming us either by joint force or by doubt and scepticism be off. May the earth protect us against earthly sin and crime. Let the sky protect us against dangers from above.

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    Translation

    May not the wicked fiends harm us. Let the dawn drive off the couples of timid ones. May the earth protect us from the terrestrial wickedness and may the firmament protect from the celestial one. (Also Rg. VII.104.23- Variation)

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    Translation

    Let not trouble-creating mischief-mongers come near us, let them who create violence and who are robbers and dacoits be far away from us. May the earth save us from earthly calamities and may the heavenly region keep up safe from the celestial trouble.

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    Translation

    Let not a troublesome ignoble person approach us, may the slanderous couple remain away from us. May Earth keep us safe from earthly woe and trouble. May the Mid-air preserve us from heavenly harm!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(नः) अस्मान् (रक्षः) राक्षसः (अभि) अभितः (मा नट्) नशत् व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१८। नशतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। च्लेर्लुक्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। अडभावः। मा प्राप्नोतु (यातुमावत्) इन्दिरा लोकमाता मा। इत्यमरः १।२९। मा लक्ष्मीः। पीडारूपसम्पत्तियुक्तम् (अप उच्छन्तु) उच्छी विवासने। अप गच्छन्तु (मिथुनाः) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। मिथृ वधे मेधायां च-उनन्। हिंसकाः (ये) (किमीदिनः) अ० १।७।१। पिशुनाः (पृथिवी) (नः) अस्मान् (पार्थिवात्) पृथिवीसम्बन्धिनः (पातु) (अंहसः) पीडनात् (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षपदार्थजातम् (दिव्यात्) अन्तरिक्षे भवात् (पातु) (अस्मान्) ॥

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