अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
56
यो नो॒ रसं॒ दिप्स॑ति पि॒त्वो अ॑ग्ने॒ अश्वा॑नां॒ गवां॒ यस्त॒नूना॑म्। रि॒पु स्ते॒न स्ते॑य॒कृद्द॒भ्रमे॑तु॒ नि ष ही॑यतां त॒न्वा॒ तना॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । रस॑म् । दिप्स॑ति । पि॒त्व: । अ॒ग्ने॒ । अश्वा॑नम् । गवा॑म् । य: । त॒नूना॑म् । रि॒पु: । स्ते॒न: । स्ते॒य॒ऽकृत् । द॒भ्रम् । ए॒तु॒ । नि । स: । ही॒य॒ता॒म् । त॒न्वा᳡ । तना॑ । च॒ ॥४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो रसं दिप्सति पित्वो अग्ने अश्वानां गवां यस्तनूनाम्। रिपु स्तेन स्तेयकृद्दभ्रमेतु नि ष हीयतां तन्वा तना च ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । रसम् । दिप्सति । पित्व: । अग्ने । अश्वानम् । गवाम् । य: । तनूनाम् । रिपु: । स्तेन: । स्तेयऽकृत् । दभ्रम् । एतु । नि । स: । हीयताम् । तन्वा । तना । च ॥४.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यः) जो [दुष्ट] (नः) हमारे (पित्वः) रक्षासाधन अन्न आदि के और (यः) जो (अश्वानाम्) घोड़ों के और (गवाम्) गौओं के (तनूनाम्) शरीरों के (रसम्) रस [तत्त्व] को (दिप्सति) मिटाना चाहे। (स्तेनः) वह तस्कर, (स्तेयकृत्) चोरी करनेवाला (रिपुः) शत्रु (दभ्रम्) कष्ट को (एतु) प्राप्त हो और (सः) वह (तन्वा) अपने शरीर से (च) और (तना) धन से (नि) सर्वथा (हीयताम्) हीन हो जावे ॥१०॥
भावार्थ
राजा प्रजा की सम्पत्ति हरनेवाले डाकू चोर आदिकों को दण्ड देकर स्वाधीन रक्खे ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(यः) (नः) अस्माकम् (रसम्) सारम् (दिप्सति) अ० ४।३६।१। दम्भितुं हिंसितुमिच्छति (पित्वः) अ० ४।६।३। पा रक्षणे−तु, यणादेशः। पितोः। रक्षासाधनस्यान्नादेः (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (अश्वानाम्) (गवाम्) (यः) (तनूनाम्) शरीराणाम् (रिपुः) रपेरिच्चोपधायाः। उ० १।२६। रप व्यक्तायां वाचि-कु, यद्वा रिफ कत्थनयुद्धनिन्दाहिंसादानेषु-कु, फस्य पः। शत्रुः (स्तेनः) चोरः (स्तेयकृत्) मोषकर्ता (दभ्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। दभि हिंसायाम्-रक्। हिंसाम् (एतु) प्राप्नोतु (नि) निश्चयेन (सः) (हीयताम्) हीनो भवतु (तन्वा) शरीरेण (तना) नन्दिग्रहिपचादिभ्यो०। पा० ३।१।१३४। तनु विस्तारे-अव। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। तनेन धनेन-निघ० २।१०। (च) ॥
विषय
'रिपु व स्तेन' को दण्डित करना
पदार्थ
१.हे (अग्ने) = राष्ट्र के अग्रणी राजन् ! (यः) = जो (नः) = हमारे (पित्व:) = अन्न के (रसं दिप्सति) = सार को नष्ट करना चाहता है, (य:) = जो हमारी (अश्वानाम्) = कर्मेन्द्रियों की शक्ति [रस] को नष्ट करना चाहता है, (यः) = जो (गवाम्) = हमारी ज्ञानेन्द्रियों के रस को समाप्त करना चाहता है तथा (य: तनूनाम्) = जो हमारे शरीरों के रस को ही समाप्त करना चाहता है, वह (रिपुः) = हमारा विदारण करनेवाला (स्तेयकृत्) = चोरी करनेवाला स्(तेन:) = चोर (दभ्रम् एतु) = हिंसा को प्राप्त हो। (सः) = वह (तन्वा) = अपने शरीर से (च) = और (तना) = अपने पुत्रों से (निहीयताम्) = हीन हो।
भावार्थ
राजा ऐसे व्यक्तियों को अवश्य दण्डित करे जिनका लक्ष्य औरों के अन्नों व शरीरों को नष्ट करना ही हो।
भाषार्थ
(यः) जो (नः) हमारे (अश्वानाम्) अश्वों के (गवाम्) गौओं के (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (यः) जो (तनूनाम्) हमारे पुत्रादि के शरीरों सम्बन्धी (रसम्) पेय रस को (पित्वः) और खाद्य अन्न को (दिप्सति) दम्भ पूर्वक [आत्मसात् करना] चाहता है, (सः) वह (रिपुः) शत्रु (स्तेनः) चोर और (स्तेयकृत) चोरी करने वाला, (दभ्रम्) रस और अन्न की अल्पता को (एतु) प्राप्त हो, (च) और (तन्वा) निज तनू से तथा (तना) सन्तानों से (निहीयताम्) विहीन हो जाय।
टिप्पणी
[दभ्रम् = Little, small (आप्टे)। तना= तनु विस्तारे + क्विप् + तृतीयैकवचन। सन्तान द्वारा विहीन हो जाय। हमारे शरीर तथा सन्तानें परम्परा प्राप्त वीर्य और रजस् के विस्तार रूप ही हैं। सन्तानों से विहीन होने का अभिप्राय है कि वह सन्तानों से मिल न सके। तथा वह रस और अन्न की अल्पता के कारण निर्बल होता-होता मृत्यु को प्राप्त हो जाय]।
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान शत्रु के तापकारिन् रजिन् ! (यः) जो पुरुष (नः) हमारे (रसम्) जल को और (पित्वः) अन्न के अंश को (दिप्सति) हम से छीन लेना चाहता है और जो (अश्वानाम्) अश्वों, (गवाम्) गौओं और (तनूनाम्) हमारे शरीरों को हम से काट लेना चाहता है, चुरा या छीन लेना चाहता है (स्तेयकृत्) चोरी करने वाला (स्तेनः) वह चोर (रिपुः) पापी, अपराधी हो जाता है। वह भी (दभ्रम्) दण्ड को (एतु) प्राप्त हो और (सः) वह (तन्वा) अपने शरीर से और (तना) अपने पुत्र आदि से (निहीयताम्) वियुक्त किया जाय, वञ्चित किया जाय।
टिप्पणी
‘यो आश्वानां यो गवां’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
O lord of light and vitality, Agni, whoever pollutes the flavour, taste and vitality of our food and injures and impairs the vigour and power of our horses, cows and our bodies, let such enemy, the thief, the robber, the saboteur, be reduced to nullity and himself suffer debility of body and even deprivation of future extension and progeny.
Translation
O adorable Lord, he, who tries to pollute the essence of food or injure our horses, our cattle and our bodies even, may such an adversary, the thief, the robber, sink to destruction, not only he himself, but also his progeny.
Translation
O King! Send to punishment destruction with his body and children the men who takes away our water and food from us and who snatch away our bodies, horses and cows as he is, enemy and robber.
Translation
O King, whosoever seeks to injure the essence of our food, steeds, kine, or bodies. May be, the adversary, thief, and robber, sink to destruction, both himself and his offsprings.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(यः) (नः) अस्माकम् (रसम्) सारम् (दिप्सति) अ० ४।३६।१। दम्भितुं हिंसितुमिच्छति (पित्वः) अ० ४।६।३। पा रक्षणे−तु, यणादेशः। पितोः। रक्षासाधनस्यान्नादेः (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (अश्वानाम्) (गवाम्) (यः) (तनूनाम्) शरीराणाम् (रिपुः) रपेरिच्चोपधायाः। उ० १।२६। रप व्यक्तायां वाचि-कु, यद्वा रिफ कत्थनयुद्धनिन्दाहिंसादानेषु-कु, फस्य पः। शत्रुः (स्तेनः) चोरः (स्तेयकृत्) मोषकर्ता (दभ्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। दभि हिंसायाम्-रक्। हिंसाम् (एतु) प्राप्नोतु (नि) निश्चयेन (सः) (हीयताम्) हीनो भवतु (तन्वा) शरीरेण (तना) नन्दिग्रहिपचादिभ्यो०। पा० ३।१।१३४। तनु विस्तारे-अव। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। तनेन धनेन-निघ० २।१०। (च) ॥
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