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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    55

    वि ति॑ष्ठध्वं मरुतो वि॒क्ष्वि॒च्छत॑ गृभा॒यत॑ र॒क्षसः॒ सं पि॑नष्टन्। वयो॒ ये भू॒त्वा प॒तय॑न्ति न॒क्तभि॒र्ये वा॒ रिपो॑ दधि॒रे दे॒वे अ॑ध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ति॒ष्ठ॒ध्व॒म् । म॒रु॒त॒: । वि॒क्षु । इ॒च्छत॑ । गृ॒भा॒यत॑ । र॒क्षस॑: । सम् । पि॒न॒ष्ट॒न॒ । वय॑: । ये ।भू॒त्वा । प॒तय॑न्ति । न॒क्तऽभि॑: । ये । वा॒ । रिप॑: । द॒धि॒रे ।दे॒वे । अ॒ध्व॒रे ॥४.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तिष्ठध्वं मरुतो विक्ष्विच्छत गृभायत रक्षसः सं पिनष्टन्। वयो ये भूत्वा पतयन्ति नक्तभिर्ये वा रिपो दधिरे देवे अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तिष्ठध्वम् । मरुत: । विक्षु । इच्छत । गृभायत । रक्षस: । सम् । पिनष्टन । वय: । ये ।भूत्वा । पतयन्ति । नक्तऽभि: । ये । वा । रिप: । दधिरे ।देवे । अध्वरे ॥४.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे शत्रुमारक वीरो ! (विक्षु) मनुष्यों के बीच (वि तिष्ठध्वम्) फैल जाओ, (रक्षसः) उन राक्षसों को (इच्छत) ढूँढ़ो, (गृभायत) पकड़ो, (सम् पिनष्टन) पीस डालो (ये) जो (वयः) पक्षी [समान] (भूत्वा) होकर (नक्तभिः) रातों में [विमान आदि से] (पतयन्ति) उड़ते हैं, (वा) अथवा (ये) जिन्होंने (देवे) दिव्य गुणयुक्त (अध्वरे) हिंसारहित व्यवहार [यज्ञ] में (रिपः) हिंसाएँ (दधिरे) धरी हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    शूरवीर पुरुष चोर उचक्के आदि शुभ कर्मों में विघ्न डालनेवाले दुष्टों को छान-बीन करके नष्ट करे ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(वि) विविधम् (तिष्ठध्वम्) तिष्ठत (मरुतः) अ० १।२०।१। शत्रुमारकाः शूराः (विक्षु) मनुष्येषु-निघ० २।३। (इच्छत) अन्विच्छत। अनुसंधत्त (गृभायत) अ० २।३०।४। गृह्णीत (रक्षसः) राक्षसान् (सम्) सम्यक् (पिनष्टन) चूर्णीकुरुत (वयः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतिगन्धनयोः-इण्, स च डित्। पक्षिणो यथा (ये) राक्षसाः (भूत्वा) (पतयन्ति) उड्डीयन्ते (नक्तभिः) रात्रिभिः (ये) (वा) (रिषः) हिंसाः। विघ्नान् (दधिरे) धृतवन्तः (देवे) दिव्यगुणयुक्ते (अध्वरे) अ० १।४।२। हिंसारहितव्यवहारे। यज्ञे-निघ० ३।१७ ॥

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    विषय

    रक्षापुरुषों का कर्तव्य

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = रक्षापुरुषो ! (विक्षु) = प्रजाओं में (वितिष्ठध्वम्) = विशेषरूप से स्थित होओ। (इच्छत) = प्रजा-पीड़कों को पकड़ने की कामना करो। (गृभायत) = इनका निग्रह करो और (रक्षस:) = इन राक्षसीवृत्तिवालों को (संपिनष्टन) = संचूर्णित कर दो। २. उन व्यक्तियों को नष्ट कर डालो, (ये) = जो (वयः भूत्वा) = [वी खादने] प्रजा के भक्षक बनकर (नक्तभिः पतयन्ति) = रात्रि में इधर-उधर औरों के विनाश के लिए गति करते हैं-जो 'नक्तंचर' हैं। (ये वा) = अथवा जो (देवे अध्वरे) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाले यज्ञों में-हिंसारहित कर्मों में (रिपः दधिरे) = हिंसाओं को धारण करते हैं। यज्ञों में विघ्न करनेवाले इन राक्षसों को भी मरुत् दण्डित करें।

    भावार्थ

    प्रजा में विचरण करते हुए राजपुरुष दुष्टों को पकड़ें और उन्हें दण्डित करें। इन नक्तंचरों और यज्ञ-विहन्ता पुरुषों को विनष्ट करें।

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    भाषार्थ

    (मरुतः) हे सैनिको ! तुम (विक्षु) प्रजाजनों में (वि तिष्ठध्वम्) विविध स्थानों में स्थित हो जाओ, (रक्षसः) राक्षसस्वभाव वाले गुप्तचरों को (इच्छत) मार देने का संकल्प करो, (गृभायत) इन्हें पकड़ो, (सं पिष्टन) और सम्यक्तया पीस डालो। तथा (ये) जो शत्रु सैनिक (वयो भूत्वा) पक्षी होकर अर्थात् वैयक्तिक विमानों द्वारा उड़ कर (नक्तभिः) रात्रियों में (पतयन्ति) उड़ते हैं, या उड़ कर आ जाते हैं; (ये वा) अथवा जो (देवे अध्वरे) हमारे दिव्य-हिंसारहित यज्ञ के सम्बन्ध में, या राष्ट्ररूप यज्ञ के सम्बन्ध में, (रिपः) हिंसाभावनाओं को (दधिरे) चित्तों में धारण करते हैं [उन्हें पकड़ो और पीस डालो]

    टिप्पणी

    [पतयन्ति= अथवा हम पर आक्रमण करते हैं। मरुतः=मरने-मारने में कुशल तथा निर्भीक सैनिक। यथा “देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम्" (यजु० १७।४०) में "मरुतः" से सैनिक अभिप्रेत हैं। मन्त्र १७ और १८ में एक ही विषय है। रिपः१ = हिंसाः रिपुताम्, शत्रुताम्]। [१. रिपः = हिंसाः; री रेषणे हिंसायाम् (क्र्यादिः) + पुट् (उणा० ५।५५)।]

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो ! या वेगवान् सिपाहियो ! आप लोग (विक्षु) प्रजाओं में (वि तिष्ठध्वं) विशेष विशेष रूपों में अधिकारी होकर शासन पदों पर स्थिर होओ या स्थान स्थान पर पहरेदार रूप में खड़े रहो और (इच्छत) प्रजाओं का हित करने की इच्छा करो। (रक्षसः) राक्षसों को (गृभायत) पकड़ो और उनको (सं पिनष्टन) अच्छी प्रकार पीसदो, पीड़ित करो, दण्डित करो। (ये) जो राक्षस लोग (वयः) तीव्रगति वाले होकर (नक्तभिः) रातों में (पतयन्ति) घूमा करें और जो (देवे) देव=राजा के (अध्वरे) यज्ञ या राष्ट्र के प्रजापालन के कार्य में (रिपः) पाप कर्म, हिंसा आदि कार्य (दधिरे) करते हैं उन (रक्षसः) राक्षसों को (गृभायत) पकड़ो और (सं पिनष्टन) खूब दण्ड दो।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘विक्ष्वि१॒॑च्छत’, (तृ०) ‘वयो ये भूत्वी’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    O Maruts, vibrant powers of vigilance, stay among the people, watch keenly for the forces of evil and violence there, grab them and crush them all, they that fly about like birds over the nights and cause disturbance and violence in the divine morning yajnas of love and non-violence.

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    Translation

    O Lord of resplendence, hurl down from the celestial place your adamantine bolts. O Lord of bounties, may you sharpen the weapon and make its edge further tempered in the herbal chemicals (poisons), and smite the demons down with your rocky implements from forward, from behind, from above and from below. (Also Rg. VII.104.18- Variation)

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    Translation

    O man of army! spread out in the people, search out among them, arrest and crush down the wickeds who wander at the night attaining activities of birds and who commit violence in the good administration of the King.

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    Translation

    O state employees, spread out among the people, perform your duty willingly, seize ye, and grind to pieces, the mischievous persons who roam about quickly like birds at night time, and put obstacles in the way of fair administration by a King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(वि) विविधम् (तिष्ठध्वम्) तिष्ठत (मरुतः) अ० १।२०।१। शत्रुमारकाः शूराः (विक्षु) मनुष्येषु-निघ० २।३। (इच्छत) अन्विच्छत। अनुसंधत्त (गृभायत) अ० २।३०।४। गृह्णीत (रक्षसः) राक्षसान् (सम्) सम्यक् (पिनष्टन) चूर्णीकुरुत (वयः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतिगन्धनयोः-इण्, स च डित्। पक्षिणो यथा (ये) राक्षसाः (भूत्वा) (पतयन्ति) उड्डीयन्ते (नक्तभिः) रात्रिभिः (ये) (वा) (रिषः) हिंसाः। विघ्नान् (दधिरे) धृतवन्तः (देवे) दिव्यगुणयुक्ते (अध्वरे) अ० १।४।२। हिंसारहितव्यवहारे। यज्ञे-निघ० ३।१७ ॥

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