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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    68

    इन्द्र॑ ज॒हि पुमां॑सं यातु॒धान॑मु॒त स्त्रियं॑ मा॒यया॒ शाश॑दानाम्। विग्री॑वासो॒ मूर॑देवा ऋदन्तु॒ मा ते दृ॑श॒न्त्सूर्य॑मु॒च्चर॑न्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । ज॒हि । पुमां॑सम् । या॒तु॒ऽधान॑म् । उ॒त । स्त्रिय॑म् । मा॒यया॑ । शाश॑दानाम् । विऽग्री॑वास: । मूर॑ऽदेवा: । ऋ॒द॒न्तु॒ । मा । ते । दृ॒श॒न् । सूर्य॑म् । उ॒त्ऽचर॑न्तम् ॥४.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र जहि पुमांसं यातुधानमुत स्त्रियं मायया शाशदानाम्। विग्रीवासो मूरदेवा ऋदन्तु मा ते दृशन्त्सूर्यमुच्चरन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । जहि । पुमांसम् । यातुऽधानम् । उत । स्त्रियम् । मायया । शाशदानाम् । विऽग्रीवास: । मूरऽदेवा: । ऋदन्तु । मा । ते । दृशन् । सूर्यम् । उत्ऽचरन्तम् ॥४.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले राजा ! (यातुधानम्) दुःखदायी (पुमांसम्) पुरुष को (उत) और (मायया) कपट से (शाशदानाम्) अति तीक्ष्णस्वभाववाली (स्त्रियम्) स्त्री को (जहि) नष्ट कर दे। (मूरदेवाः) मूढ़ [निर्बुद्धि] व्यवहारवाले (विग्रीवासः) ग्रीवारहित होकर (ऋदन्तु) नष्ट हो जावें, (ते) वे (उच्चरन्तम्) उदय होते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (मा दृशन्) न देखें ॥२४॥

    भावार्थ

    राजा उपद्रवी स्त्री-पुरुषों को कठिन दण्ड देकर नष्ट कर दे, जिससे वे उदय होते हुए सूर्य के समान फिर न उभरें ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(इन्द्र) (जहि) (पुमांसम्) पुरुषम् (यातुधानम्) पीडाप्रदम् (उत) अपि (स्त्रियम्) (मायया) कपटेन (शाशदानाम्) अ० १।१०।१। अत्यर्थं तीक्ष्णस्वभावाम् (विग्रीवासः) असुगागमः। विच्छिन्नग्रीवाः (मूरदेवाः) अ० ८।३।२। मूढव्यवहारयुक्ताः (ऋदन्तु) वैदिकधातुः। नश्यन्तु (ते) पूर्वोक्ताः (मा दृशन्) मा द्राक्षुः (सूर्यम्) (उच्चरन्तम्) उद्यन्तम् ॥

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    विषय

    मूरदेवाः ऋदन्तु

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रु-संहारक प्रभो! (पुमांस यातुधानम्) = पुरुष राक्षस को तो आप (जहि) = नष्ट कीजिए ही, (उत) = और (मायया) = प्रवञ्चन के द्वारा (शाशदानाम्) = हिंसन करती हुई (स्त्रियम्) = स्त्री शरीरवाली राक्षसी को (उत) = भी आप विनष्ट कीजिए। २. (मूरदेवा:) = मारण ही जिनकी क्रीड़ा है [दिव् क्रीडायाम्], वे राक्षस (विग्रीवास:) = गर्दनरहित हुए-हुए (ऋादन्तु) = नष्ट हो जाएँ। (ते) = वे (उच्चरन्तं सूर्यम्) = उदय होते हुए सूर्य को (मा दुशन्) = न देखें, अर्थात् ये लोग दीर्घजीवी न हों।

     

    भावार्थ

    प्रजा को पीड़ित करनेवाले स्त्री-पुरुष समाज से दूर हों, औरों को मारने में ही आनन्द लेनेवाले लोग विनाश को प्राप्त हों।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट् ! (यातुधानम्) यातनाओं को धारण करने वाला, यातना के निधिभूत (पुमांसम्) पुरुष का (उत) तथा (मायया) छल कपट द्वारा (शाशदानाम्) हिंसा करने वाली (स्त्रियम्) स्त्री का (जहि) तू हनन कर (मूरदेवाः) मूढ-व्यवहारी या मारण-क्रीडा करने वाले ये (विग्रीवासः) ग्रीवाओं से विगत हुए (ऋदन्तु) नष्ट हो जाय और (उच्चरन्तम्) उदित होते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (मा)(दृशन्) देख पाए।

    टिप्पणी

    [मन्त्र (२३) में मिथुनाः द्वारा स्त्री-पुरुष दोनों का वर्णन हुआ है। मन्त्र (२४) में भी पुमान् और स्त्री दोनों का वर्णन हुआ है। अत्याचारी दोनों को समान दण्ड देने का विधान हुआ है। जिस दिन ये उग्र अपराधी घोषित किये जाय उसी दिन इनकी ग्रीवाएं काट देनी चाहिये ताकि अगले दिन के सूर्य का ये दर्शन न कर पाएं। दण्डप्रदान और अपराध में विशेष व्यवधान न होना चाहिये। अपराध का दण्ड उसी दिन ही हो जाना चाहिये जिस दिन कि अपराध किया गया हो]।

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (यातु-धानम्) परपीड़ादायी (पुमांसम्) पुरुष को और (मायया) माया, छल कपट से (शाशदानाम्) दूसरों का विनाश करने वाली, अर्थलोलुपा (स्त्रियम्) स्त्री को भी (जहि) विनाश कर, उसको दण्ड दे। (मूर-देवाः) गर्दन रहित या झुकी, विकृत गर्दन वाले होकर (ऋदन्तु) नाश को प्राप्त हों, कष्ट पावें कि (ते) वे (उत्- चरन्तम्) ऊपर उठते हुए सूर्य को भी (मा दृशन्) न देख सकें। उक्त प्रकार के दुष्ट स्त्री पुरुषों की गर्दनें मरोड़ कर ऐसी झुका दी जावें कि वे सूर्य को देख भी न सकें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    Indra, punish and eliminate the man demon. Punish and eliminate the woman demon who destroys by deception and crafty design. Let the stranglers of life who play with life and death lose their own neck and let them never see the rising sun.

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    Translation

    O Lord of resplendence, may you slay the fiend appearing in disguise whether he belongs to the class of man or woman, playing mischief by her deceptions. May those fools who murder by chopping necks perish and see no more of the Sun when he arises. (Also Rg. VII.104.24)

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    Translation

    O mighty King! Destroy the male who is the. Creator of wickedness, or the female who is very keen implying treachery and evil tricks. Let the persons of hypocritic activities and nature perish deprived of their necks and they could not see the sun when it arises.

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    Translation

    O King, destroy the troublesome person, destroy the woman, joying and triumphing in deceit. Let the worshippers of fools, with bent necks fall and perish, and see no more the Sun when he rises!

    Footnote

    Deceitful, troublesome, foolish persons should be destroyed and made to lose their life before the rising of the Sun.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(इन्द्र) (जहि) (पुमांसम्) पुरुषम् (यातुधानम्) पीडाप्रदम् (उत) अपि (स्त्रियम्) (मायया) कपटेन (शाशदानाम्) अ० १।१०।१। अत्यर्थं तीक्ष्णस्वभावाम् (विग्रीवासः) असुगागमः। विच्छिन्नग्रीवाः (मूरदेवाः) अ० ८।३।२। मूढव्यवहारयुक्ताः (ऋदन्तु) वैदिकधातुः। नश्यन्तु (ते) पूर्वोक्ताः (मा दृशन्) मा द्राक्षुः (सूर्यम्) (उच्चरन्तम्) उद्यन्तम् ॥

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