अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
59
यदि॑ वा॒हमनृ॑तदेवो॒ अस्मि॒ मोघं॑ वा दे॒वाँ अ॑प्यू॒हे अ॑ग्ने। किम॒स्मभ्यं॑ जातवेदो हृणीषे द्रोघ॒वाच॑स्ते निरृ॒थं स॑चन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । वा॒ । अ॒हम् । अनृ॑तऽदेव: । अस्मि॑ । मोघ॑म् । वा॒ । दे॒वान् । अ॒पि॒ऽऊ॒हे । अ॒ग्ने॒ । किम् । अ॒स्मभ्य॑म् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । हृ॒णाी॒षे॒ । द्रो॒घ॒ऽवाच॑: । ते॒ । नि॒:ऽऋ॒थम् । स॒च॒न्ता॒म् ॥४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि वाहमनृतदेवो अस्मि मोघं वा देवाँ अप्यूहे अग्ने। किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निरृथं सचन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । वा । अहम् । अनृतऽदेव: । अस्मि । मोघम् । वा । देवान् । अपिऽऊहे । अग्ने । किम् । अस्मभ्यम् । जातऽवेद: । हृणाीषे । द्रोघऽवाच: । ते । नि:ऽऋथम् । सचन्ताम् ॥४.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(यदि वा) क्या (अहम्) मैं (अनृतदेवः) झूँठे व्यवहारवाला (अस्मि) हूँ, (वा) अथवा, (अग्ने) हे विज्ञानी राजन् ! (देवान्) स्तुतियोग्य पुरुषों को (मोघम्) व्यर्थ (अप्यूहे) निन्दित जानता हूँ। (जातवेदः) हे बड़े ज्ञानवाले राजन् ! तू (किम्) किस लिये (अस्मभ्यम्) हम पर (हृणीषे) क्रोध करता है, (द्रोघवाचः) अनिष्ट बोलनेवाले पुरुष (ते) तेरे (निर्ऋथम्) क्लेश को (सचन्ताम्) भोगें ॥१४॥
भावार्थ
राजा सत्यवादी और असत्यवादियों का निर्णय करके यथोचित व्यवहार करे ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(यदि वा) प्रश्ने (अहम्) सत्यवादी (अनृतदेवः) असत्यव्यवहारी (अस्मि) (मोघम्) व्यर्थम् (वा) अथवा (देवान्) स्तुत्यान् पुरुषान् (अव्यूहे) अपि निन्दायाम्+ऊह वितर्के-लट्। निन्दितान् विचारयामि (किम्) कथम् (अस्मभ्यम्) क्रुधद्रुहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः। पा० १।४।३७। इति चतुर्थी। अस्मान् प्रति (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (हृणीषे) क्रुध्यसि (द्रोघवाचः) अनिष्टवादिनः (ते) तव (निर्ऋथम्) अ० ६।६३।१। क्लेशम् (सचन्ताम्) सेवन्ताम् ॥
विषय
'अनृतदेव' का हिंसन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (यदि वा अहम्) = यदि मैं (अनृतदेव:) = असत्य से व्यवहार करनेवाला (अस्मि) = हूँ [दिव् व्यवहारे] (वा) = अथवा (देवान्) = ज्ञानियों के समीप (अपि) = भी (मोघम् ऊहे) = व्यर्थ का ही तर्क-वितर्क करता हूँ, श्रद्धाशून्य होता हुआ सत्य बात को समझने का प्रयत्न नहीं करता। यदि मैं ऐसा हूँ तब तो आप मुझे दण्डित कीजिए, अन्यथा हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (किम्) = क्यों (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (हृणीषे) = आप क्रोध करते हैं। हे प्रभो! हम 'अनृतदेव व व्यर्थ का तर्क वितर्क' करनेवाले न होते हुए आपके प्रिय ही बनें। २. (द्रोघवाच:)= द्रोहयुक्त वाणीवाले ही (ते) = आपके (निथम्) = हिंसन को (सचन्ताम्)= प्राप्त करनेवाले हों। द्रोहयुक्त वाणीवाले ही आपके द्वारा हिंसित किये जाएँ।
भावार्थ
न हम असत्य व्यवहार करनेवाले हों और न ही व्यर्थ का तर्क-वितर्क करनेवाले हों। हम कभी द्रोहयुक्त बाणी का प्रयोग न करें।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन्! (यदि वा) यदि (अनृतदेवः अहं अस्मि) अमृत को देव मानने वाला मैं हूं, (वा) अथवा (मोघम्) व्यर्थ में (देवान्) विजिगीषु सैनिकों या राष्ट्रव्यवहार सम्बन्धी अधिकारियों को (अपि ऊहे) मैंने अदित किया है, हिंसित किया है तो (हृणीषे) मुझे लज्जित या अपमानित कर, या मुझ पर क्रोध कर, परन्तु [इन के न होते] (किम्) क्यों (जातवेदः) हे प्रज्ञाशील ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिये [हृणीषे] तू क्रोध करता या हमें लज्जित, अपमानित करता है, (द्रोघवाचः) द्रोहवादी (ते) तुझ द्वारा निर्दिष्ट (निर्ऋथम्) निर्ऋति अर्थात् कृच्छ्रापत्ति को (सचन्ताम्) प्राप्त हों।
टिप्पणी
[ऊहे= उहिर् अर्दने (भ्वादिः)। अर्द हिंसायाम् (चुरादिः)। हृणीषे= हृणीङ् रोषणे लज्जायाञ्च (कण्ड्वादिः); तथा हृणिः क्रोधनाम (निघं० २।१३); हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा (निघं० २।१२)। देवान्= दिवु क्रीडाविजिगीषा, व्यवहार आदि (दिवादिः)। "अनृत देव" का अभिप्राय है अमृतभाषण, अनृतव्यवहार को ही निज देव मान कर तदनुकूल व्यवहार करना। समग्र चतुर्थ सूक्त में इन्द्र और सोम का वर्णन है। इन्द्र है सम्राट् तथा सोम है सेनाध्यक्ष। इन से अतिरिक्त अग्नि द्वारा अग्रणी-प्रधानमन्त्री का भी वर्णन चतुर्थ सूक्त में हुआ है। मन्त्र में सैनिकशासन का वर्णन है। इसलिये प्रधानमन्त्री के प्रति सेनाध्यक्ष कहता है कि सैनिकशासन काल में यदि मैंने कोई अनृतव्यवहार किया है, या सैनिकों तथा अन्य शासकरूपी देवों के साथ कोई अनुचित व्यवहार किया है तो तू मुझे लज्जित या अपमानित कर, और मुझ पर क्रोध प्रकट कर, परन्तु जिस किसी अधिकारी ने मुझ पर "यातुधान" होने का आरोप किया है, यदि वह आरोप न्यायालय द्वारा असत्य सिद्ध हो जाय तो उसे तू मन्त्रोक्त दण्ड प्रदान कर। यातुधान = यातना का निधान, यातना देने वाला। "न्यायालय" इसलिये कि वेदानुसार दण्डविधान न्यायालय द्वारा होता है। इसलिये कहा है कि 'धर्माय समाचरम्" [आलभते] (यजु० ३०।६); धर्माय= राजधर्म की व्यवस्था के लिये, राजा सभाचर अर्थात् (मुख्य न्यायाधीश) को प्राप्त करे। सभा= न्यायाधीशों की सभा]।
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
(यदि वा) यदि मैं (अनृत-देवः) असत्य को अपना इष्ट मानने वाला, असत्य का उपासक होऊं (अपि वा) और यदि (मोघम्) व्यर्थ ही (देवान्) नाना उपास्यों की झूठ मूठ (कहे) कल्पना करूं तो हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! या पापियों के संतापक ! मैं अवश्य दण्ड का भागी हूँ, परन्तु हम वैसे नहीं हैं। अतः हे (जातवेदः) विद्वन् ! (अस्मभ्यम्) हमारे प्रति फिर (किम्) क्योंकर आप (हृणीषे) क्रोध करेंगे। प्रत्युत जो लोग (द्रोघ-वाचः) आपके विरुद्ध द्रोह की चर्चा करने वाले, द्रोही लोग हों, (ते) वे (निर्ऋथम्) मृत्यु या दण्ड को (सचन्ताम्) प्राप्त हों।
टिप्पणी
‘देवा आस’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
Unless I am a worshipper of falsehood as my divine ideal or adore the lord and divinities falsely, deceiving them as if, why would you, Jataveda Agni, all knowing lord of light and truth, be angry with me? You would not be angry, because only the speakers of falsehood would suffer your wrath and punishment.
Translation
O adorable Lord, when did I worship the deities of falsehood or when did I think adversely about Nature’s bounties ? O Lord, the knower of all that is born, why are you angry with us ? May destruction fall upon them who lie against you (Also Rg. VII.104.14)
Translation
O wise King! If I worship untruth as truth, if I, in vain think of many worshippable deities, do you become angry upon us-? Let the calamity fall upon them (be they others or be they we) who speak lie against you.
Translation
As if I am a worshipper of falsehood, or think vain thoughts about the sages; O King, why art thou angry with us, Q King. May destruction fall on those who lie against thee!
Footnote
A king should not be angry with us, as we are not the votaries of falsehood or revilers of sages. We should not be mistaken as such, and considered worthy of indignation by the king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(यदि वा) प्रश्ने (अहम्) सत्यवादी (अनृतदेवः) असत्यव्यवहारी (अस्मि) (मोघम्) व्यर्थम् (वा) अथवा (देवान्) स्तुत्यान् पुरुषान् (अव्यूहे) अपि निन्दायाम्+ऊह वितर्के-लट्। निन्दितान् विचारयामि (किम्) कथम् (अस्मभ्यम्) क्रुधद्रुहेर्ष्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः। पा० १।४।३७। इति चतुर्थी। अस्मान् प्रति (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (हृणीषे) क्रुध्यसि (द्रोघवाचः) अनिष्टवादिनः (ते) तव (निर्ऋथम्) अ० ६।६३।१। क्लेशम् (सचन्ताम्) सेवन्ताम् ॥
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