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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    46

    प्र या जिगा॑ति ख॒र्गले॑व॒ नक्त॒मप॑ द्रु॒हुस्त॒न्वं गूह॑माना। व॒व्रम॑न॒न्तमव॒ सा प॑दीष्ट॒ ग्रावा॑णो घ्नन्तु र॒क्षस॑ उप॒ब्दैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । या । जिगा॑ति । ख॒र्गला॑ऽइव । नक्त॑म् । अप॑ । द्रु॒हु: । त॒न्व᳡म् । गूह॑माना । व॒व्रम् । अ॒न॒न्तम् । अव॑ । सा । प॒दी॒ष्ट॒ । ग्रावा॑ण: । घ्न॒न्तु॒ । र॒क्षस॑: । उ॒प॒ब्दै: ॥४.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र या जिगाति खर्गलेव नक्तमप द्रुहुस्तन्वं गूहमाना। वव्रमनन्तमव सा पदीष्ट ग्रावाणो घ्नन्तु रक्षस उपब्दैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । या । जिगाति । खर्गलाऽइव । नक्तम् । अप । द्रुहु: । तन्वम् । गूहमाना । वव्रम् । अनन्तम् । अव । सा । पदीष्ट । ग्रावाण: । घ्नन्तु । रक्षस: । उपब्दै: ॥४.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 17
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (या) जो (द्रुहुः) बुरा चीतनेवाली स्त्री (तन्वम्) शरीर [स्वरूप] को (अप गूहमाना) छिपाती हुई (खर्गला इव) खङ्ग लिये हुए जैसे [अथवा व्यथा देनेवाली उलूकी आदि के समान] (नक्तम्) रात्रि में (प्र जिगाति) निकलती है। (सा) वह (अनन्तम्) अथाह (वव्रम्) गढ़े को (अव) अधोमुख होकर (पदीष्ट) प्राप्त हो, (प्रावाणः) सूक्ष्मदर्शी लोग (उपब्दैः) शब्दों के साथ (रक्षसः) राक्षसों को (घ्नन्तु) मारें ॥१७॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् पुरुष अपराधी स्त्री-पुरुषों को उनका दोष प्रकट करके दण्ड देवें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(प्र) प्रकर्षे। बहिर्भावे (या) (जिगाति) गाङ् गतौ। परस्मैपदत्वं जुहोत्यादित्वं च छान्दसम्, जिगाति गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति (खर्गला) खङ्ग+ला आदाने-क, डस्य रः। खङ्गं गृह्णाना। यद्वा पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। खर्ज पूजने व्यथने च-घ प्रत्ययः। चजोः कुः घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्+ला दाने-क। व्यथादात्री। उलूक्यादिः (इव) यथा (नक्तम्) रात्रौ (अपगूहमाना) संवृण्वती। अप्रकाशयन्ती (द्रुहुः) म० ७। द्रोग्ध्री (तन्वम्) शरीरम्। स्वरूपम्। (वव्रम्) म० ३। कूपम् (अनन्तम्) अवधिकम् (अव) अवेत्य। अधोमुखी भूत्वा (सा) दुष्टा (पदीष्ट) म० १६। गम्यात् (ग्रावाणः) अ० ३।१०।५। गॄ विज्ञाने-क्वनिप्। सूक्ष्मदर्शिनः (घ्नन्तु) मारयन्तु (रक्षसः) राक्षसान् (उपब्दैः) अ० २।२४।६। वाग्भिः-निघ० १।११ ॥

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    विषय

    व्यभिचारिणी का दण्ड

    पदार्थ

    १. (या) = जो (खर्गला इव) = उलूकी के समान (नक्तम्) = रात्रि में (द्रुहु:) = पति के प्रति द्रोह की वृत्तिवाली होती हुई (तन्वं गूहमाना) = अपने शरीर को छिपाती हुई, अर्थात् चुपके-चुपके छदावेष में (अप प्रजिगाति) = घर से बाहर जाती हैं, अर्थात् व्यभिचारिणी [जारिणी] के समान आचरण करती है, (सा) = वह (अनन्तं वव्रम्) = अनन्त गहरे गड्डे को अवपदीष्ट जानेवाली हो-नरक-कुण्डों में गिरनेवाली हो। २. (ग्रावाण:) = उपदेष्टा लोग उपब्दैः ज्ञान के शब्दों से इन (रक्षस:) = राक्षसी वृत्तिवाले लोगों को (न्घन्तु) = प्राप्त हों [हन् गती] और इनके राक्षसीभावों को विनष्ट करें।

    भावार्थ

    व्यभिचार द्वारा पति के जीवन को कड़वा करनेवाली स्त्री अनन्त गड्डों में गिरनेवालो हो। ज्ञानोपदेष्टा ज्ञान के शब्दों द्वारा इसकी इन बुरी वृत्तियों को विनष्ट करें।



     

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    भाषार्थ

    (या१) जो (द्रुहुः) द्रोहकारिणी शत्रुरूपी (तन्वम्) निज स्वरूप को (अप गूहमाना) छिपाती हुई (नक्तम्) रात में (खर्गला इव) उलूकिनी की तरह (प्र जिगाति२) गति करती है [हमारे नगर में] (सा) वह (अनन्तम्३) गहरे (वव्रम्) कूप में (अव) अधोमुखी हुई (पदीष्ट) गिरा दी जाय और (ग्रावाणः) पत्थर (उपब्देः४) ध्वनियों सहित (रक्षसः) ऐसी राक्षसी स्त्रियों को (घ्नन्तु) मार डालें।

    टिप्पणी

    [यह शत्रुस्त्री गुप्तचरी है, जो किसी महाव्यक्ति को मारने तथा भेद लेने के लिये शत्रु द्वारा भेजी जाती है। ऐसी स्त्री या अन्य गुप्तचर पुरुष को जो कि शत्रुराष्ट्र द्वारा प्रेषित होता है, गहरे कूप में अधोमुख करके गिरा कर, पत्थरों पर पत्थर, ध्वनि करते हुए, गिरा कर, मार देने का विधान हुआ है। "वव्रः कूपनाम" (निघं० २।२३)। खर्गला= जिसके "गले" की आवाज "खर" है, कठोर रूक्ष है। खर्गल= उलूक] [१. अथवा "या"= शत्रु सेना २. जिगाति गाङ् गतौ। ३. अनन्तं वव्रम्= अथवा संख्या में अनन्त कूप। शत्रु सेना के बहुसंख्याक सैनिकों को कूपों में गिरा कर मारने के लिये। ४. उपब्दैः= उपवदैः= उपशब्दैः, पत्थरों की बौछार में पत्थरों के परस्पर टकराने से पैदा शब्द या ध्वनियां। मन्त्र में "रक्षसः" पद बहुवचनान्त है। इसलिये "या" का अर्थ "शत्रुसेना" किया है।]

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    अपराधिनी स्त्रियों को दण्ड। (या) जो स्त्री (खर्गला इव) उल्लूनी के समान (नक्तम्) रात को (तन्वम्) अपने शरीर को अन्धकार में (गूहमाना) छिपाती हुई (प्र जिगाति) घूमा करे या (द्रुहुः) अपने सम्बन्धियों से लड़ कर (अप जिगाति) घर छोड़ कर भाग जाय। (सा) वह स्त्री (अनन्तम्) अनन्त काल के लिये (वव्रम्) कैद, आवृत स्थान या गढ़े में (पदीष्ट) प्राप्त हो। और यदि स्त्री न होकर पुरुष उपरोक्त दोष करे तो ऐसे (रक्षसः) दुष्टों को (ग्रावाणः) विद्वान् लोग (उपब्दैः) अपने वाक्-प्रहारों से या तीक्ष्ण दण्डाज्ञाओं से (घ्नन्तु) दण्डित करें। अथवा (ग्रावाणः) पत्थर (उपब्दैः) अपने घरघराते शब्दों सहित उन राक्षसों का विनाश करें।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘नक्तमपद्रुहा तन्वं’ (वृ०) ‘वव्रां अनन्तां अब’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    And she that goes about at night, hiding her person like a spirit of hate and violence, a she-owl as if, would fall into the bottomless deep of darkness. Men of judgement should condem the evil with strong words of disapproval.

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    Translation

    May she too, who wanders like owl during the darkness of night, hiding her body in concealment of person, fall head-long down into endless caverns. May the strong implements with their loud shrill destroy such female demons. (Also Rg. VII.104.17- Variation)

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    Translation

    Head-long fall into the deep unfathomable ditch the woman who bearing ill-motives or malignance for others wanders at night time like an owl masquerading her face. Let the wise statesmen beat the wickeds with their instructive words.

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    Translation

    A woman who wanders like an owl at night-time hiding her body in her guile and malice, should be thrown into long imprisonment. If the culprit is a male, such demons should be punished by the learned with their rebukes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(प्र) प्रकर्षे। बहिर्भावे (या) (जिगाति) गाङ् गतौ। परस्मैपदत्वं जुहोत्यादित्वं च छान्दसम्, जिगाति गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छति (खर्गला) खङ्ग+ला आदाने-क, डस्य रः। खङ्गं गृह्णाना। यद्वा पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। खर्ज पूजने व्यथने च-घ प्रत्ययः। चजोः कुः घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्+ला दाने-क। व्यथादात्री। उलूक्यादिः (इव) यथा (नक्तम्) रात्रौ (अपगूहमाना) संवृण्वती। अप्रकाशयन्ती (द्रुहुः) म० ७। द्रोग्ध्री (तन्वम्) शरीरम्। स्वरूपम्। (वव्रम्) म० ३। कूपम् (अनन्तम्) अवधिकम् (अव) अवेत्य। अधोमुखी भूत्वा (सा) दुष्टा (पदीष्ट) म० १६। गम्यात् (ग्रावाणः) अ० ३।१०।५। गॄ विज्ञाने-क्वनिप्। सूक्ष्मदर्शिनः (घ्नन्तु) मारयन्तु (रक्षसः) राक्षसान् (उपब्दैः) अ० २।२४।६। वाग्भिः-निघ० १।११ ॥

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