अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
56
प्र व॑र्तय दि॒वोऽश्मा॑नमिन्द्र॒ सोम॑शितं मघव॒न्त्सं शि॑शाधि। प्रा॒क्तो अ॑पा॒क्तो अ॑ध॒रादु॑द॒क्तो॒भि ज॑हि र॒क्षसः॒ पर्व॑तेन ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । व॒र्त॒य॒ । दि॒व: । अश्मा॑नम् । इ॒न्द्र॒ । सोम॑ऽशितम् । म॒घ॒ऽव॒न् । सम् । शि॒शा॒धि॒ । प्रा॒क्त: । अ॒पा॒क्त: । अ॒ध॒रात् । उ॒द॒क्त: । अ॒भि । ज॒हि॒ । र॒क्षस॑: । पर्व॑तेन ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वर्तय दिवोऽश्मानमिन्द्र सोमशितं मघवन्त्सं शिशाधि। प्राक्तो अपाक्तो अधरादुदक्तोभि जहि रक्षसः पर्वतेन ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वर्तय । दिव: । अश्मानम् । इन्द्र । सोमऽशितम् । मघऽवन् । सम् । शिशाधि । प्राक्त: । अपाक्त: । अधरात् । उदक्त: । अभि । जहि । रक्षस: । पर्वतेन ॥४.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(मघवन्) हे महाधनी ! (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (सोमशितम्) ऐश्वर्यवान् शिल्पी द्वारा तेज किये गये (अश्मानम्) व्यापनेवाले पदार्थ पत्थर लोह आदि [अथवा पत्थर समान दृढ़ हथियार] को (सम्) सर्वथा (शिशाधि) तीक्ष्ण कर और (दिवः) आकाश से (प्र वर्तय) लुढ़का दे। (प्राक्तः) सामने से (अपाक्तः) दूर से, (अधरात्) नीचे से, (उदक्तः) ऊपर से (रक्षसः) राक्षसों को (पर्वतेन) पहाड़ [बड़े हथियार] से (अभि) सब ओर से (जहि) मार ॥१९॥
भावार्थ
प्रतापी राजा गुणी शिल्पियों द्वारा आकाश से चलनेवाले शस्त्र बनवाकर शत्रुओं को सब दिशाओं से नाश करे ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(प्रवर्तय) प्रेरय (दिवः) आकाशात् (अश्मानम्) अशिशकिभ्यः छन्दसि। उ० ४।१४।७। अशू व्याप्तौ संघाते च-मनिन्। अश्मा मेघः-निघ० १।१०। व्यापनशीलं पाषाणलोहादिपदार्थम्, यद्वा पाषाणवद्दृढायुधम्, (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (सोमशितम्) ऐश्वर्यवता महाशिल्पिना तीक्ष्णीकृतम् (मघवन्) महाधनिन् (सम्) सम्यक् (शिशाधि) अ० ४।३१।४। श्य। तीक्ष्णीकुरु (प्राक्तः) प्राक्-तसिल्। सम्मुखदेशात् (अपाक्तः) दूरदेशात् (अधरात्) अधः स्थानात् (उदक्तः) उपरिस्थानात् (अभि) सर्वतः (जहि) (रक्षसः) राक्षसान् (पर्वतेन) अ० ४।९।१। शैलेन। महाशस्त्रेणेत्यर्थः ॥
विषय
दुष्टों पर अश्म-प्रवर्तन
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो! (दिवः) = अन्तरिक्षलोक से (अश्मानम्) = अशनि को [Thunder bolt] (प्रवर्तय) = प्रवृत्त कीजिए। इस अशनिरूप वज़ से दुष्टों का संहार कीजिए। हे (मघवन्) = सर्वैश्वर्यवाले प्रभो! (सोमशितम्) = सोमरक्षण द्वारा बुद्धि को तीन बनानेवाले पुरुष को (संशिशाधि) = सम्यक् अनुशिष्ट कीजिए-इसे संस्कृत जीवनवाला बनाइए। २. (प्राक्तः अपाक्त:) = पूर्व से व पश्चिम से, (अधरात् उदक्त:) = दक्षिण से व उत्तर से, अर्थात् सब दिशाओं से (रक्षस:) = राक्षसीवृत्तिवाले पुरुषों को (पर्वतेन) = पर्ववाले वज़ से (अभिजहि) = विनष्ट कीजिए।
भावार्थ
अपने को प्रभु का कार्यकर्ता समझता हुआ राजा दुष्टों को सब ओर से दण्डित करे।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे सम्राट् ! (दिवः) द्युलोक से (अश्मानम्) पत्थरों को (प्रवर्तय) लुढ़काओ, अर्थात् फैंको, (सोमशितम्) जो कि सेनाध्यक्ष द्वारा तीक्ष्ण किये गये हैं, (मघवन्) हे ऐश्वर्यवान् इन्द्र! (सं शिशाधि) उन्हें सम्यक्तया और तीक्ष्ण करा। (प्राक्तः) पूर्व से, (अपाक्तः) पश्चिम से (अधरात्) दक्षिण से, (उदक्तः) उत्तर से (पर्वतेन) पर्वतसदृश सुदृढ़ आयुधों के समूह द्वारा (रक्षसः) राक्षस कृत्यों वालों का (अभि) साक्षात (जहि) हनन कर।
टिप्पणी
[यदि राक्षस "वयोभूत्वा" (मन्त्र १८) अन्तरिक्ष से प्रहार करें, तो विमानों द्वारा अन्तरिक्ष से भी ऊपर जाकर, द्युलोक से उन पर प्रहार करने का विधान हुआ है। मन्त्र में "अश्मा" द्वारा तीक्ष्ण आयुध अभिप्रेत है, पत्थर नहीं, और पर्वत द्वारा सुदृढ़ आयुधों का समूह अभिप्रेत है। तभी "शितम् और सं शिशाधि" पद सार्थक हो सकते हैं। समग्र सूक्त में सोम पद सेनाध्यक्षार्थं है। पर्वतेन=पर्ववता वज्रेण (सायण)। अश्मानम्= अश निलक्षणं वज्रम् (सायण)]
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (दिवः) आकाश से जिस प्रकार बिजुली तीव्रता से नीचे आती है उसी प्रकार तू (अश्मानम्) अश्मा,लोहसार या फौलाद की बनी तलवार या शस्त्र को (प्र वर्त्तय) भली प्रकार प्रयोग में ला। और हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (सोम-शितं) सोम-न्यायाधीश से तीक्ष्ण किये, दण्डनीय रूप से निर्धारित, दण्डनीय पुरुष को (सं शिशाधि) अच्छी प्रकार से दण्डित कर। और (पर्वतेन) पोरुओं वाले वज्र से या धनुष् से (प्राक्तः) आगे से भी (रक्षसः) राक्षसों का (अभि जहि) विनाश कर।
टिप्पणी
‘दिवो अश्मा’, (वृ०) ‘प्राक्तादुपाक्तादधरादुक्तादभि’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
Indra, lord of power and justice, from the light of divinity and wisdom of the sages, bring up and strike the thunderbolt of justice and correction tempered and sharpened with soma for peace and progress. Sharpen and train them on the wicked, seize them from front and back, up and down, and crush them with the bolt.
Translation
O vital winds, may you carefully conduct out a search amongst people; take them into custody and grind the demons to powder, who having transformed themselves to birds fly all over during the darkness and then proceed to sully and pollute the sacred worship. (Also Rg. VII.19- Variation)
Translation
O mighty King! hurl down your steelweapen which is sharpened by electricity and smite and slay the mischief- creators forward, behind and from above and under with your weapon having edges.
Translation
O King, hurl down from heaven thy steel weapon. Give condign punishment to the guilty who deserves it, O powerful ruler. Smite down the demons with thy heavy weapon from the East, West, North and South!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(प्रवर्तय) प्रेरय (दिवः) आकाशात् (अश्मानम्) अशिशकिभ्यः छन्दसि। उ० ४।१४।७। अशू व्याप्तौ संघाते च-मनिन्। अश्मा मेघः-निघ० १।१०। व्यापनशीलं पाषाणलोहादिपदार्थम्, यद्वा पाषाणवद्दृढायुधम्, (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (सोमशितम्) ऐश्वर्यवता महाशिल्पिना तीक्ष्णीकृतम् (मघवन्) महाधनिन् (सम्) सम्यक् (शिशाधि) अ० ४।३१।४। श्य। तीक्ष्णीकुरु (प्राक्तः) प्राक्-तसिल्। सम्मुखदेशात् (अपाक्तः) दूरदेशात् (अधरात्) अधः स्थानात् (उदक्तः) उपरिस्थानात् (अभि) सर्वतः (जहि) (रक्षसः) राक्षसान् (पर्वतेन) अ० ४।९।१। शैलेन। महाशस्त्रेणेत्यर्थः ॥
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