अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
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प॒रः सो अ॑स्तु त॒न्वा॒ तना॑ च ति॒स्रः पृ॑थि॒वीर॒धो अ॑स्तु॒ विश्वाः॑। प्रति॑ शुष्यतु॒ यशो॑ अस्य देवा॒ यो मा॒ दिवा॒ दिप्स॑ति॒ यश्च॒ नक्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप॒र: । स: । अ॒स्तु॒ । त॒न्वा᳡ । तना॑ । च॒ । ति॒स्र: । पृ॒थि॒वी: । अ॒ध: । अ॒स्तु॒ । विश्वा॑: । प्रति॑ । शु॒ष्य॒तु॒ । यश॑: । अ॒स्य॒ । दे॒वा॒: । य: । मा॒ । दिवा॑ । दिप्स॑ति । य: । च॒ । नक्त॑म् ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
परः सो अस्तु तन्वा तना च तिस्रः पृथिवीरधो अस्तु विश्वाः। प्रति शुष्यतु यशो अस्य देवा यो मा दिवा दिप्सति यश्च नक्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठपर: । स: । अस्तु । तन्वा । तना । च । तिस्र: । पृथिवी: । अध: । अस्तु । विश्वा: । प्रति । शुष्यतु । यश: । अस्य । देवा: । य: । मा । दिवा । दिप्सति । य: । च । नक्तम् ॥४.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [दुष्ट] (तन्वा) अपने शरीर से (च) और (तना) धन से (परः) परे (अस्तु) हो जावे और (विश्वाः) सब (तिस्रः) तीनों (पृथिवीः अधः) भूमियों [शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं] से नीचे-नीचे (अस्तु) हो जावे। (देवाः) हे विद्वानो ! (अस्य) उसका (यशः) यश (प्रति शुष्यतु) सूख जावे, (यः) जो (मा) मुझे (दिवा) दिन में (च) और (यः) जो (नक्तम्) रात्रि में (दिप्सति) सताना चाहे ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्रजा को दिन वा रात्रि में सतावे, उसको विद्वान् लोग सब प्रकार दण्ड देवें ॥११॥
टिप्पणी
११−(परः) परस्तात्। दूरे (सः) शत्रुः (अस्तु) (तन्वा) (तना) म० १०। धनेन (च) (तिस्रः) त्रिप्रकाराः (पृथिवीः) भूमीः। शारीरिकात्मिकसामाजिकव्यवस्थाः (अधः) उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु। द्वितीयाऽऽम्रेडितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते। वा० पा० २।३।२। इत्यधसो योगे द्वितीया। अधोऽधः (अस्तु) (विश्वाः) व्याप्ताः सर्वाः (प्रति) प्रातिकूल्ये (शुष्यतु) शुष्कं भवतु (यशः) कीर्त्तिः (अस्य) पापिनः (देवाः) हे विद्वांसः। शूराः (यः) (मा) माम्। धार्मिकम् (दिवा) अहनि (दिप्सति) म० १०। हिंसितुमिच्छाति (यः) (च) (नक्तम्) रात्रौ ॥
विषय
हिंसक वृत्तिवाले का बहिष्कार
पदार्थ
१. (यः) = जो (मा) = मझे (दिवा) = दिन में (दिप्सति) = हिंसित करना चाहता है (च यः) = और जो (नक्तम्) = रात्रि में हमें नष्ट करना चाहता है, हे (देवा:) = देवो! (अस्य यशः प्रतिशुष्यतु) = उसका यश सूख जाए-वह सर्वत्र बदनाम हो जाए। २. (स:) = वह जिघांसावाला व्यक्ति (तन्वा) = अपने शरीर से (तना च) = और अपने पत्रों से (परः अस्तु) = दूर हो जाए। इसे शरीर व पुत्रों से वियुक्त कर दिया जाए। पुत्रों से इसका कोई सम्बन्ध न रहे, जिससे यह पुत्रों को भी अशुभ वृत्तिवाला न बना दे। यह व्यक्ति (विश्वा:) = प्राणियों का जिनमें प्रवेश है उन (तिस्त्रा:) = तीनों (पृथिवी:) = लोकों के (अध: अस्तु) = नीचे हो, अर्थात् उनका तीनों लोकों से बहिष्कार हो जाए।
भावार्थ
औरों की जिघांसावाला मनुष्य अपकीर्ति को प्राप्त करे, शरीर व पुत्रों से वियुक्त हो, लोकत्रयो से उसका बहिष्कार हो।
भाषार्थ
(सः) वह (तन्वा) निज शरीर से (च) और (तना) सन्तानों से (परः अस्तु) परे हो जाय, [अथवा] (विश्वाः) सब (तिस्रः पृथिवीः) तीन पृथिवियों से (अधः) नीचे (अस्तु) हो जाय तथा (अस्य) इसका (यशः) यश (प्रति शुष्यतु) सूख जाय, मिट जाय, (देवाः) हे साम्राज्य के दिव्य अधिकारियो ! (यः) जो (मा) मुझे (दिवा) दिन में (यः च) और जो (नक्तम्) रात में (दिप्सति) धोखा देना चाहता है, या मार देना चाहता है।
टिप्पणी
[परः= परदेश निकाला, स्वदेश से निकाल देना। इस प्रकार वह स्वशरीर की दृष्टि से स्वदेश से परे हो जाता है, और सन्तानों से भी परे हो जाता है। सन्तानें तो स्वदेश में ही रहती हैं। तिस्रः पृथिवी = (१) पर्वतीय अधित्यका, उच्चभूमि। (२) पर्वतीय उपत्यका, पादभूमि। (३) तथा समतल भूमि। इन से अधोभूमि= कबर, भूमि खोद कर निर्मित गड्ढा]।
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! धर्माधिकारियो या शासनकारो और राजसभासदो ! या प्रजाजनो ! (यः) जो पुरुष (मा) मुझ प्रजापुरुष को (दिवा) दिन के समय में और (यः च) जो (नक्तम्) रात के समय में (दिप्सति) मारता है, घात करता है (सः) वह (तन्वा) अपने शरीर से और (तना च) पुत्र से भी (परः अस्तु) वियुक्त किया जाय। वह (विश्वा) समस्त प्रजाओं में (तिस्रः) तीन (पृथिवीः) पृथिविएँ, तीन मंजिले अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों से नीचे शूद्र रूप में (अधः अस्तु) उस निचले पद पर रहे अथवा तीन मंजिल गहरे तहखाने में कैद करके डाला जाय और (अस्य) उसका (यशः) मान और कीर्त्ति (प्रति शुष्यतु) उसके पाप के कारण सूख जाय, उसको नीचे गिरा कर अपमानित किया जाय।
टिप्पणी
(च०) ‘यो नो दिव’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
O divinities of nature and humanity, may he, who wants to injure and destroy me in the day and in the night, stay far off in personal presence and also with the progeny of his evil tendencies, and may he even fall lower than all the three orders of earthly existence, i.e., lower than the good, the bad and the indifferent. May his honour and reputation dry up and evaporate to zero and let there be none to remember him on earth.
Translation
May he be deprived of his bodily existence, as well as his posterity. May he be thrown out from all the three worlds and may his fair glory be blighted, who thinks of our destruction during the day or at night. (Also Rg. VII.104.11)
Translation
O officials of the state! May be swept away himself and with children and be sent down in the eyes of the three grand classes of men (Brahman, Kshatriya and Vaishya) the person who attempt to destroy using the day or in the night and let all his glory go to an inglorious end.
Translation
May he be deprived of his body and children; may all the three earths press him down beneath them. May his fair glory, O ye learned persons, be blighted, who in the day or night would fain destroy us.
Footnote
Three earths: Three stages, physical, social spiritual; or three castes, Brahmanas, Kshatriyas, Vaishas, i.e., he shall always remain a Shudra.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(परः) परस्तात्। दूरे (सः) शत्रुः (अस्तु) (तन्वा) (तना) म० १०। धनेन (च) (तिस्रः) त्रिप्रकाराः (पृथिवीः) भूमीः। शारीरिकात्मिकसामाजिकव्यवस्थाः (अधः) उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु। द्वितीयाऽऽम्रेडितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते। वा० पा० २।३।२। इत्यधसो योगे द्वितीया। अधोऽधः (अस्तु) (विश्वाः) व्याप्ताः सर्वाः (प्रति) प्रातिकूल्ये (शुष्यतु) शुष्कं भवतु (यशः) कीर्त्तिः (अस्य) पापिनः (देवाः) हे विद्वांसः। शूराः (यः) (मा) माम्। धार्मिकम् (दिवा) अहनि (दिप्सति) म० १०। हिंसितुमिच्छाति (यः) (च) (नक्तम्) रात्रौ ॥
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