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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    59

    इन्द्रो॑ यातू॒नाम॑भवत्पराश॒रो ह॑वि॒र्मथी॑नाम॒भ्या॒विवा॑सताम्। अ॒भीदु॑ श॒क्रः प॑र॒शुर्यथा॒ वनं॒ पात्रे॑व भि॒न्दन्त्स॒त ए॑तु र॒क्षसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । या॒तू॒नाम् । अ॒भ॒व॒त् । प॒रा॒ऽश॒र: । ह॒वि॒:ऽमथी॑नाम् । अ॒भि । आ॒ऽविवा॑सताम् । अ॒भि । इत् । ऊं॒ इति॑ । श॒क्र: । प॒र॒शु: । यथा॑ । वन॑म् । पात्रा॑ऽइव । भि॒न्दन् । स॒त: । ए॒तु॒ । र॒क्षस॑: ॥४.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो यातूनामभवत्पराशरो हविर्मथीनामभ्याविवासताम्। अभीदु शक्रः परशुर्यथा वनं पात्रेव भिन्दन्त्सत एतु रक्षसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । यातूनाम् । अभवत् । पराऽशर: । हवि:ऽमथीनाम् । अभि । आऽविवासताम् । अभि । इत् । ऊं इति । शक्र: । परशु: । यथा । वनम् । पात्राऽइव । भिन्दन् । सत: । एतु । रक्षस: ॥४.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (हविर्मथीनाम्) ग्राह्य अन्न आदि पदार्थों के मथनेवाले [हलचल करनेवाले], (आविवासताम्) समीप निवासी (यातूनाम्) पीड़ा देनेवालों का (पराशरः) कुचलनेवाला (अभि) सब ओर से (अभवत्) हुआ है। (शक्रः) शक्तिमान् राजा (इत् उ) (अभि) सब ओर से (अभवत्) हुआ है। (शक्रः) शक्तिमान् राजा (इत् उ) अवश्य ही, (परशुः) कुल्हाड़ा (यथा) जैसे (वनम्) वन को, (पात्रा इव) पात्रों के समान (भिन्दन्) तोड़ता हुआ, (सतः) विद्यमान (रक्षसः) राक्षसों पर (अभि एतु) चढ़ाई करे ॥२१॥

    भावार्थ

    पूर्वज पराक्रमी राजाओं के समान तेजस्वी राजा शत्रुओं का नाश करे, जैसे कुल्हाड़े से वन को काटते हैं अथवा मिट्टी के बासन को लाठी से तोड़ते हैं ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (यातूनाम्) पीडकानाम् (अभवत्) (पराशरः) अ० ६।६५।१। विनाशकः (हविर्मथीनाम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। हविः+मन्थ विलोडने-इन्। हविषां ग्राह्यान्नादीनां विलोडकानाम् (अभि) सर्वतः (आविवासताम्) आङ्+वि+वसेर्णि च-शतृ। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। आर्धधातुकत्वाण्णिलोपः। समीपनिवासिनाम् (अभि एतु) अभिगच्छतु (इत्) अवश्यन् (उ) एव (शक्रः) शक्तो राजा (परशुः) अ० ३।१९।४। कुठारः (यथा) (वनम्) वृक्षसमूहम् (पात्रा) मृण्मयानि पात्राणि (इव) यथा (भिन्दन्) विदारयन् (सतः) उपस्थितान् (रक्षसः) राक्षसान् ॥

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    विषय

    'प्रजापीड़क, यज्ञ-विध्वंसक, आक्रामक राक्षसों का विनाश

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (यातूनाम्) = पीड़ा देनेवालों को (पराशर: अभवत्) = सुदुर विनष्ट करनेवाला होता है। (हविर्मथीनाम्) = यज्ञ के विध्वंसकों का तथा (अभि आविवासताम्) = हमारी आर आनेवालों, अर्थात् हमपर आक्रमण करनेवालों का विनाशक होता है। २. (शक्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (सत:) = प्रास होनेवाले (रक्षस:) = राक्षसों को इसप्रकार (भिन्दन् अभि एतु) = विदीर्ण करता हुआ आता है, (इव) = जैसेकि (इत् उ) = निश्चय से (परशः वनम्) = कुल्हाड़ा वन को तथा (यथा) = जैसे (मुद्गर पात्रा) = पात्रों को नष्ट करता हुआ आता है।

    भावार्थ

    प्रभु 'प्रजापीड़क, यज्ञ-विध्वंसक, आक्रामक' राक्षसों का विनाश करते हैं।


     

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    भाषार्थ

    (यातूनाम्) यातना देने वालों, (हविर्मयीनाम्) हविष्यान्न को मथने वालों तथा (अभि) हमारी ओर (आ = आगत्य) आ कर (विवासतम्) विविध स्थानों में निवास करने वालों को, (इन्द्रः) सम्राट् (परा) पराङ्मुख करके (शरः) विनाशकर्ता (अभवत्) हुआ है । (शक्रः) शक्तिशाली इन्द्र, (यथा) जैसे (वनम्) वन को (परशुः) कुठार, वैसे (रक्षसः) राक्षसों के (अभि एतु) अभिमुख आए (सतः) प्राप्त हुए राक्षसों को (भिन्दन्) तोड़ता हुआ (पात्रा इव) जैसे कि पात्रों को तोड़ता हुआ [पत्थर या दण्डा] प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    [सतः= तिरः सत इति प्राप्तस्य (निरुक्त ३।२०)। यातूनाम्= यातु धानानाम्। यथा देवदत्तो, दत्तः]।

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) राजा (यातूनाम्) पीड़ाकारियों का और (अभि आविवासताम्) रण में अभिमुख होकर मुकाबले में लड़ने वाले (हविर्मथीनाम्) हविः—राजा की आज्ञा का मथन, विनाश करने वाले (यातूनाम्) प्रजापीड़कों का (पराशरः) प्रबल विनाशक (अभवत्) है। (वनम्) वन को (यथा) जिस प्रकार (परशुः) कुल्हाड़ा काट डालता है और (पात्रा इव) मट्टी के वर्त्तनों को जिस (इव) प्रकार पत्थर फोड़ डालता है उसी प्रकार (सतः) देश पर चढ़ आये (रक्षसः) दुष्ट पुरुषों को (शक्रः) शक्तिमान् राजा (इत्) भी (अभि भिन्दन् एतु) काटता, फाटता हुआ पहुँचे।

    टिप्पणी

    (च०) ‘सत एति’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    Indra is the lordly power that throws off the upcoming saboteurs who damage the inputs and infrastructure of yajnic development for the peace and progress of the human community. He is mighty powerful just like what the axe is for the woods, breaking down the evil and wicked destroyers like pots of clay whenever they raise their head.

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    Translation

    Whensoever the evil fiends proceed to obstruct the sacred rites of the invoker, the Lord of resplendence always comes to destroy them. The omnipotent Lord advance and crushes down the assailing demons, as an axe cuts down, the forest timber, and smashes them like an earthen vessel. (Also Rg. 104.21- Variation)

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    Translation

    The mighty King becomes the annihilator of those wickeds and foes who poison the water and food and who come near as assailants. The powerful King smashing like jugs the enemies present as an axe cuts the jungle.

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    Translation

    A King is ever the destroyer of fiends who openly oppose him on the battlefield and disobey his orders. Just as an axe splits the timber and a stone breaks the earthen vessels, so should the powerful king assail and smash men devilish in nature, who come to fight against him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (यातूनाम्) पीडकानाम् (अभवत्) (पराशरः) अ० ६।६५।१। विनाशकः (हविर्मथीनाम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। हविः+मन्थ विलोडने-इन्। हविषां ग्राह्यान्नादीनां विलोडकानाम् (अभि) सर्वतः (आविवासताम्) आङ्+वि+वसेर्णि च-शतृ। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। आर्धधातुकत्वाण्णिलोपः। समीपनिवासिनाम् (अभि एतु) अभिगच्छतु (इत्) अवश्यन् (उ) एव (शक्रः) शक्तो राजा (परशुः) अ० ३।१९।४। कुठारः (यथा) (वनम्) वृक्षसमूहम् (पात्रा) मृण्मयानि पात्राणि (इव) यथा (भिन्दन्) विदारयन् (सतः) उपस्थितान् (रक्षसः) राक्षसान् ॥

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