अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
ऋषिः - चातनः
देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
127
उलू॑कयातुं शुशु॒लूक॑यातुं ज॒हि श्वया॑तुमु॒त कोक॑यातुम्। सु॑प॒र्णया॑तुमु॒त गृध्र॑यातुं दृ॒षदे॑व॒ प्र मृ॑ण॒ रक्ष॑ इन्द्र ॥
स्वर सहित पद पाठउलू॑कऽयातुम् । शु॒शु॒लूक॑ऽयातुम् । ज॒हि । श्वऽया॑तुम् । उ॒त । कोक॑ऽयातुम् । सु॒प॒र्णऽया॑तुम् । उ॒त । गृध्र॑ऽयातुम् । दृ॒षदा॑ऽइव । प्र । मृ॒ण॒ । रक्ष॑: । इ॒न्द्र॒ ॥४.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्। सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ॥
स्वर रहित पद पाठउलूकऽयातुम् । शुशुलूकऽयातुम् । जहि । श्वऽयातुम् । उत । कोकऽयातुम् । सुपर्णऽयातुम् । उत । गृध्रऽयातुम् । दृषदाऽइव । प्र । मृण । रक्ष: । इन्द्र ॥४.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे प्रतापी राजन् ! (उलूकयातुम्) उल्लू के समान झपटनेवाले, (शुशुलूकयातुम्) बड़े अचेत के समान दुःखदायी, (श्वयातुम्) कुत्ते समान पीड़ा देनेवाले (उत) और (कोकयातुम्) भेड़िया समान हिंसा करनेवाले, (सुपर्णयातुम्) श्येन पक्षी समान शीघ्र चलनेवाले (उत) और (गृध्रयातुम्) गिद्ध समान दूर पहुँचनेवाले [उपद्रवी] को (जहि) मार और (दृषदा इव) जैसे शिला से (रक्षः) राक्षस को (प्र मृण) नाश कर दे ॥२२॥
भावार्थ
नीतिकुशल राजा विविध प्रकार के उपद्रवियों को नाश करता रहे ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(उलूकयातुम्) उलूकादयश्च। उ० ४।४१। वल संवरणे-ऊक। कमिमनिजनि०। उ० १।७३। या प्रापणे गतौ च−तु। उलूकवद् गन्तारम् (शुशुलूकयातुम्) उलूकादयश्च। उ० ४।४१। सु+शुर मारणे स्तम्भे च-ऊक। सस्य शः, रस्य लः। यत ताडने-उण्। अचैतन्यपुरुषवत्पीडकम् (जहि) मारय (श्वयातुम्) म० २०। कुक्कुरसमानपीडकम् (उत) अपि च (कोकयातुम्) कुक आदाने-अच्। वृकवत्पीडकम् (सुपर्णयातुम्) श्येनवच्छीघ्रगामिनम् (उत) (गृध्रयातुम्) गृध्रवद्दूरगन्तारम् (प्र) प्रकर्षेण (मृण) नाशय (रक्षः) राक्षसम् (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् ॥
विषय
उलूकयातुं, गृध्रयातुम्
पदार्थ
१. (उलूकयातुम्) = उल्लू के समान गतिवाले (रक्ष:) = राक्षस को हे (इन्द्र) = प्रभो! (दृषदा इव) = जैसे पत्थर से किसी वस्तु को मसल देते हैं, इसप्रकार (प्रमृण) = मसल डालिए। उल्लू अन्धकार में हिंसन करता है, इसी प्रकार अन्धकार में हिंसन करनेवाले चोरों को समाप्त कर दीजिए। २. (शुशुलुकयातुम्) = बड़े कर्कश स्वर में चीखनेवाले छोटे उल्लू की चालवाले राक्षस को (जहि) = मार डालिए। सदा कर्कश स्वर में ही बोलनेवालों को हमसे दूर कीजिए। ३. (श्वयातुम्) = कुत्ते की भौति लड़ने-झगड़ने-एक-दूसरे को काटनेवालों को नष्ट कीजिए, (उत) = और (कोकयातुम्) = चकवा चकवी की भाँति कामासक्तिवाले को नष्ट कीजिए। ४. (सुपर्णयातुम्) = गरुड़ की भाँति अभिमान की चालवाले को पीस डालिए, (उत) = और (गृध्रयातुम्) = गिद्ध की भौति लोभवृत्तिवाले को समाप्त कर दीजिए।
भावार्थ
प्रभु के अनुग्रह से हम 'अज्ञानान्धकार, कर्कश स्वर, ईर्ष्या-द्वेष, कामासक्ति, अभिमान व लोभ' से दूर हों।
भाषार्थ
(उलूकयातुम्) उल्लू की चाल वाले, (शुशुलुकयातुम्) अतिशीघ्रता से परद्रव्य का अपहरण कर जीवनयात्रा करने वाले, (श्वयातुम्) कुत्तों की चाल वाले, (उत) और (कोकयातुम्) चक्रवाक की तरह व्यवहार वाले, (सुपर्णयातुम्) गरुड़ की चाल वाले, (उत) और (गृधयातुम्) गीध की चाल वाले (रक्षः) राक्षस को (इन्द्र) हे सम्राटु ! तू (प्रमुण) मार डाल, (दृषदा इव) जैसे कि चक्की के पाट द्वारा [चनों को पीसा जाता है।]
टिप्पणी
[उलूकयातुम् = उल्लू की तरह रात्री में परराष्ट्र में घूमने वाला। शुशुलूक यातुम् = "शु" इति क्षिप्रनाम (निरुक्त ६।१।१)। “शुशु" अभ्यास द्वारा अतिशीघ्रता द्योतित की है; लूक= लुञ्च अपनयने (भ्वादिः)। परद्रव्य का अपहरण करने वाला। श्वयातुम् = कष्ट देने के लिये शिकारी कुत्तों के साथ विचरने वाला यथा (मन्त्र २०)। कोकयातुम्= चक्रवाक की तरह विषयानुरागी। सुपर्णयातुम्= गरुड़ की तरह शिकार१ पर झपटने वाला। गृधयातुम् = गीध की तरह गर्धा सम्पन्न। दृषदा२ (अथर्व० २।३१।१)] । [१. गरुड़ सांपों पर झपट्टा मारता है। २. इन्द्रस्य या मही दृषद् क्रिमेविश्वस्य तर्हणी। तथा पिनश्मि संक्रिमीन् दुषदा खल्वानिव। (अथर्व० २।३१।१) खल्वान् चणकान् (सायण)।]
विषय
दुष्ट प्रजाओं का दमन।
भावार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! (दृषदा) जिस प्रकार पत्थर से मिट्टी का बर्त्तन तोड़ डाला जाता है उसी प्रकार तू (उलूक-यातुम्) उल्लुओं के समान चाल चलनेवाले, रात के समय लोगों पर छापा मारने वाले (शुशुलूक-यातुम्) छोटे उल्लू के समान चाल चलने वाले, अप्रत्यक्ष में कर्ण कटु बोलने वाले और जन्तुओं की आंखें निकालने वाले या उनकी आंखों में धूल झोंकने वाले, चुगलखोर, (श्व-यातुम्) कुत्तों के समान चाल चलने वाले, कमज़ोरों पर गुर्रा गुर्रा कर उनको फाड़ खा जाने वाले (उत) और (कोक-यातुम्) भेड़िये के समान चाल चलने वाले, पीछे से आक्रमण करके निर्दयता से लूटने पीटने वाले, (सुपर्णयातुम्) बाज के समान चाल चलनेवाले, अपने से कमज़ोरों पर टूटकर उनके बच्चों और जान माल को लूट खसोटने वाले और (गृध्र-यातुम्) गीध के समान चाल चलने वाले, मरते सिसकतों की भी खाल खैंचने या उनपर अत्याचार करके उनका धनापहरण करने वालों को (प्र मृण) अच्छी प्रकार विनष्ट कर, उनको दण्ड दे और उनका बल तोड़ डाल।
टिप्पणी
‘शिशुलूकयातु’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Enemies
Meaning
Indra, refulgent and potent ruler of the world, crush the evil and the wicked like pieces of clay with a stone: the fiend in the garb of an owl, or an owlet, or a dog, or a wolf, or a hawk, or a vulture. They are covert, stealthy, clever, jealous and growling cruel destroyers, cunning and voracious.
Translation
Destroy the evil being, whether he comes in the fiendish grab of an owl, or of an owlet, or of a dog, or of a duck or of a falcon, or of a vulture. O Lord of resplendence, slay such a demoniac person by the stroke of your stones. (Also Rg. VII.104.22)
Translation
O mighty ruler! Exterminate the owl-like activity, owlet- like activity, doglike activity; destroy the wolf-like activity, vulture-like acts and eagle-like activities. O King destroy all these mischievous activities and save the State from them.
Translation
O learned person, suppress with iron determination the six enemies of the soul, as birds are killed with stone, (1) the unwisdom of an owl, (2) the violence of a wolf (3) the jealousy of a dog (4) the lust of a sparrow, (5) the pride of a garuda (6) the avarice of a vulture.
Footnote
A wise man should subdue with an iron hand, (1) folly (2) violence (3) jealousy (4) lust (5) pride (6) avarice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(उलूकयातुम्) उलूकादयश्च। उ० ४।४१। वल संवरणे-ऊक। कमिमनिजनि०। उ० १।७३। या प्रापणे गतौ च−तु। उलूकवद् गन्तारम् (शुशुलूकयातुम्) उलूकादयश्च। उ० ४।४१। सु+शुर मारणे स्तम्भे च-ऊक। सस्य शः, रस्य लः। यत ताडने-उण्। अचैतन्यपुरुषवत्पीडकम् (जहि) मारय (श्वयातुम्) म० २०। कुक्कुरसमानपीडकम् (उत) अपि च (कोकयातुम्) कुक आदाने-अच्। वृकवत्पीडकम् (सुपर्णयातुम्) श्येनवच्छीघ्रगामिनम् (उत) (गृध्रयातुम्) गृध्रवद्दूरगन्तारम् (प्र) प्रकर्षेण (मृण) नाशय (रक्षः) राक्षसम् (इन्द्र) प्रतापिन् राजन् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal