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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
    47

    यो माया॑तुं॒ यातु॑धाने॒त्याह॒ यो वा॑ र॒क्षाः शुचि॑र॒स्मीत्याह॑। इन्द्र॒स्तं ह॑न्तु मह॒ता व॒धेन॒ विश्व॑स्य ज॒न्तोर॑ध॒मस्प॑दीष्ट ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । मा॒ । अया॑तुम् । यातु॑ऽधान । इति॑ । आह॑ । य: । वा॒ । र॒क्षा: । शुचि॑: । अ॒स्मि॒ । इति॑ । आह॑ । इन्द्र॑: । तम् । ह॒न्तु॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । विश्व॑स्य । ज॒न्तो: । अ॒ध॒म: । प॒दी॒ष्ट॒ ॥४.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो मायातुं यातुधानेत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह। इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेन विश्वस्य जन्तोरधमस्पदीष्ट ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । मा । अयातुम् । यातुऽधान । इति । आह । य: । वा । रक्षा: । शुचि: । अस्मि । इति । आह । इन्द्र: । तम् । हन्तु । महता । वधेन । विश्वस्य । जन्तो: । अधम: । पदीष्ट ॥४.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (मा अयातुम्) मुझ अनदुःखदायी को (इति) यह (आह) कहे, (यातुधान) “तू दुःखदायी है,” (वा) अथवा (यः) जो (रक्षाः) राक्षस होकर (इति) यह (आह) कहे, (शुचिः अस्मि) “मैं पवित्र हूँ”। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (तम्) उस को (महता) विशाल (वधेन) मारू हथियार से (हन्तु) मारे और वह (विश्वस्य) प्रत्येक (जन्तोः) जीव के (अधमः) नीचे होकर (पदीष्ट) चले ॥१६॥

    भावार्थ

    जो छली पुरुष धर्मात्माओं को अधर्मी बतावे और आप अधर्मी होकर धर्मात्मा बने, ऐसे पाखण्डियों को राजा सर्वथा दण्ड देवे ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(यः) दुराचारी (मा) माम् (अयातुम्) कृवापा०। उ० १।१। यत ताडने-उण्। अपीडकम् (यातुधान) हे यातनाप्रद (इति) एवम् (आह) ब्रूते (यः) (वा) (रक्षाः) पु० लि०। राक्षसाः (शुचिः) पवित्रः (इति) (आह) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (तम्) (हन्तु) मारयतु (महता) अतिप्रभाववता (वधेन) मारकेणायुधेन (विश्वस्य) सर्वस्य। प्रत्येकस्य (जन्तोः) जीवस्य (अधमः) निकृष्टः (पदीष्ट) अ० ७।३१।१। पत्सीष्ट। गम्यात् ॥

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    विषय

    मिथ्या दोषारोपण का दण्ड

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अयातुम्) = राक्षस न होते हुए (मा) = मुझे (यातुधान इति आह) = 'राक्षस' इस नाम से कहता है, (यः वा) - अथवा जो (रक्षा:) = राक्षसीवृत्तिवाला पुरुष (शुचिः अस्मि) = 'मैं पवित्र हूँ'(इति आह) = ऐसा कहता है, (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक प्रभु (तम्) = उसे (महता वधेन हन्तु) = महान् अस्त्र से नष्ट करे। २. ऐसा व्यक्ति (विश्वस्य जन्तो:) = सब प्राणियों से (अधमः पदीष्ट) = निकृष्ट होता हुआ गति करे, इसकी स्थिति सबसे नीचे हो।

    भावार्थ

    औरों पर मिथ्या दोषारोपण करनेवाला और अपने को पवित्र माननेवाला व्यक्ति दण्डित हो तथा निकृष्ट स्थिति में रक्खा जाए।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (अयातुम्, मा) यातना न देने वाले मुझ को (यातुधान इति आह) हे यातुधान ! इस प्रकार कहता है, सम्बोधित करता है, (वा) तथा (यः रक्षाः) जो राक्षस स्वभाव वाला अपने आप को (आह) कहता है कि (शुचिः अस्मि इति) मैं पवित्र हूं, (तम्) उस उभयविध को (इन्द्रः) सम्राट् (महता वधेन) वधकारी महास्त्र द्वारा (हन्तु) मार डाले, (विश्वस्य जन्तोः) सब जन्मधारियों से (अधमः) निकृष्ट वह (पदीष्ट) पतन करे, नष्ट हो जाय।

    टिप्पणी

    [वर्तमान मन्त्र में भी मन्त्र (१५) की भावना है]

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    विषय

    दुष्ट प्रजाओं का दमन।

    भावार्थ

    (यः) जो (माम्) मुझको (अयातुस्) प्रजापीड़क या दण्ड्य न होते हुए भी (यातुधान इति आह) प्रजापीड़क, दण्डनीय इस प्रकार बतलावे (वा) और (यः) जो (रक्षाः) स्वयं राक्षस, प्रजा का पीड़क होकर भी अपने को (शुचिः अस्मि) मैं शुचि, निर्दोष हूँ (इति आह) ऐसा कहे (इन्द्रः) राजा (तम्) उसको (महता) बड़े भारी (वधेन) दण्ड से (हन्तु) दण्डित करे। और वह (विश्वस्य जन्तोः) समस्त प्राणियों से (अधमः पदीष्ट) नीचा समझा जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। इन्द्रासोमौ देवते। रक्षोहणं सूक्तम्। १-३, ५, ७, ८, २१, २४ विराट् जगती। ८-१७, १९, २२, २४ त्रिष्टुभः। २०, २३ भृरिजौ। २५ अनुष्टुप्। पञ्चविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    Whoever says that I am a devil even though I am not a devil, and whoever says that he is pure and innocent although he is a very devil, may Indra, lord of power and justice, punish such a person with his mighty thunderbolt, may such a falsifier fall to the abyss as the worst of all living beings.

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    Translation

    May the Lord of resplendence annihilate him with His dreadful weapon, who addresses me as a fiend appearing in disguise which I am not and may He slay such a demon who says to himself, I am pure. May he, the most wretched amongst all beings perish. (Also Rg. VII.104.16)

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    Translation

    Let the mighty King kill, with lethal weapon, to the man who calls me wicked and mischief monger while I am free from all the devilish nature, who being himself treacherous wicked declares that he is a man of puritan type and let him as vilest of all creatures perish.

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    Translation

    He who calls me a demon though devoid of demon nature, and being a 'fiend says that he is pure, may the king slay him with a mighty weapon, and let him perish as the vilest of all creatures.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(यः) दुराचारी (मा) माम् (अयातुम्) कृवापा०। उ० १।१। यत ताडने-उण्। अपीडकम् (यातुधान) हे यातनाप्रद (इति) एवम् (आह) ब्रूते (यः) (वा) (रक्षाः) पु० लि०। राक्षसाः (शुचिः) पवित्रः (इति) (आह) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (तम्) (हन्तु) मारयतु (महता) अतिप्रभाववता (वधेन) मारकेणायुधेन (विश्वस्य) सर्वस्य। प्रत्येकस्य (जन्तोः) जीवस्य (अधमः) निकृष्टः (पदीष्ट) अ० ७।३१।१। पत्सीष्ट। गम्यात् ॥

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